यज़ीद
स्टोरीलाइन
करीम दादा एक ठंडे दिमाग़ का आदमी है जिसने तक़सीम के वक़्त फ़साद की तबाहियों को देखा था। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान जंग के तानाज़ुर में यह अफ़वाह उड़ती है कि हिन्दुस्तान वाले पाकिस्तान की तरफ़ आने वाले दरिया का पानी बंद कर रहे हैं। इसी बीच उसके यहाँ एक बच्चे का जन्म होता है जिसका नाम वह यज़ीद रखता है और कहता है कि उस यज़ीद ने दरिया बंद किया था, यह खोलेगा।
सन सैंतालीस के हंगामे आए और गुज़र गए। बिल्कुल उसी तरह जिस मौसम में ख़िलाफ़-ए-मा’मूल चंद दिन ख़राब आएं और चले जाएं। ये नहीं कि करीम दाद, मौला की मर्ज़ी समझ कर ख़ामोश बैठा रहा। उसने उस तूफ़ान का मर्दानावार मुक़ाबला किया था। मुख़ालिफ़ कुव्वतों के साथ वो कई बार भिड़ा था। शिकस्त देने के लिए नहीं, सिर्फ़ मुक़ाबला करने के लिए।
उसको मालूम था कि दुश्मनों की ताक़त बहुत ज़्यादा है, मगर हथियार डाल देना वो अपनी ही नहीं हर मर्द की तौहीन समझता था।
सच पूछिए तो उसके मुतअ’ल्लिक़ ये सिर्फ़ दूसरों का ख़याल था, उनका जिन्होंने उसे वहशी नुमा इंसानों से बड़ी जांबाज़ी से लड़ते देखा था। वर्ना अगर करीम दाद से इस बारे में पूछा जाता, कि मुख़ालिफ़ कुव्वतों के मुक़ाबले में हथियार डालना क्या वो अपनी या मर्द की तौहीन समझता है, तो वो यक़ीनन सोच में पड़ जाता। जैसे आप ने उससे हिसाब का कोई बहुत ही मुश्किल सवाल कर दिया है।
करीम दाद, जमा- तफ़रीक़ और ज़रब-तक़सीम से बिल्कुल बेनियाज़ था। सन सैंतालीस के हंगामे आए और गुज़र गए। लोगों ने बैठ कर हिसाब लगाना शुरू किया कि कितना जानी नुक़्सान हुआ, कितना माली, मगर करीम दाद इससे बिल्कुल अलग-थलग रहा।
उसको सिर्फ़ इतना मालूम था कि उसका बाप रहीम दाद इस जंग में काम आया है। उसकी लाश ख़ुद करीम दाद ने अपने कंधों पर उठाई थी और एक कुवें के पास गढ़ा खोद कर दफनाई थी।
गांव में और भी कई वारदातें हुई थीं। सैंकड़ों जवान और बूढ़े क़त्ल हुए थे, कई लड़कियां ग़ायब होगई थीं। कुछ बहुत ही ज़ालिमाना तरीक़े पर बेआबरू हुई थी। जिसके भी ये ज़ख़्म आए थे, रोता था, अपने फूटे नसीबों पर और दुश्मनों की बेरहमी पर, मगर करीम दाद की आँख से एक आँसू भी न निकला।
अपने बाप रहीम दाद की शहज़ोरी पर उसे नाज़ था। जब वो पच्चीस-तीस, बरछियों और कुल्हाड़ियों से मुसल्लह बलवाइयों का मुक़ाबला करते करते निढाल हो कर गिर पड़ा था, और करीम दाद को उसकी मौत की ख़बर मिली थी तो उसने उसकी रूह को मुख़ातिब करके सिर्फ़ इतना कहा था, “यार तुमने ये ठीक न किया। मैंने तुमसे कहा था कि एक हथियार अपने पास ज़रूर रखा करो।”
और उसने रहीम दाद की लाश उठा कर, कुँवें के पास गढ़ा खोद कर दफ़ना दी थी और उसके पास खड़े हो कर फ़ातिहा के तौर पर सिर्फ़ ये चंद अल्फ़ाज़ कहे थे, “गुनाह-सवाब का हिसाब ख़ुदा जानता है। अच्छा तुझे बहिश्त नसीब हो!”
रहीम दाद जो न सिर्फ़ उसका बाप था बल्कि एक बहुत बड़ा दोस्त भी था, बलवाइयों ने बड़ी बेदर्दी से क़त्ल किया था। लोग जब उसकी अफ़सोसनाक मौत का ज़िक्र करते थे तो क़ातिलों को बड़ी गालियां देते थे, मगर करीम दाद ख़ामोश रहता था।
उसकी कई खड़ी फ़सलें तबाह हुई थीं। दो मकान जल कर राख होगए थे। मगर उसने अपने इन नुक़्सानों का कभी हिसाब नहीं लगाया था। वो कभी-कभी सिर्फ़ इतना कहा करता था जो कुछ हुआ है। हमारी अपनी ग़लती से हुआ है और जब कोई उससे उस ग़लती के मुतअ’ल्लिक़ इस्तिफ़सार करता तो वो ख़ामोश रहता।
गांव के लोग अभी सोग में मसरूफ़ थे कि करीम दाद ने शादी करली। उसी मुटियार जीनां के साथ जिस पर एक अर्से से उसकी निगाह थी।
जीनां सोगवार थी। उसका शहतीर जैसा कड़ियल जवान भाई बलवों में मारा गया था। माँ-बाप की मौत के बाद एक सिर्फ़ वही उसका सहारा था।
इसमें कोई शक नहीं कि जीनां को करीम दाद से बेपनाह मोहब्बत थी, मगर भाई की मौत के ग़म ने ये मोहब्बत उसके दिल में स्याह पोश करदी थी। अब हर वक़्त उसकी सदा मुस्कुराती आँखें नमनाक रहती थीं।
करीम दाद को रोने-धोने से बहुत चिड़ थी। वो जीनां को जब भी सोग ज़दा हालत में देखता तो दिल ही दिल में बहुत कुढ़ता। मगर वो उससे इस बारे में कुछ कहता नहीं था, ये सोच कर कि औरत ज़ात है। मुम्किन है उसके दिल को और भी दुख पहुंचे, मगर एक रोज़ उससे न रहा गया।
खेत में उसने जीनां को पकड़ लिया और कहा, “मुर्दों को कफ़नाये-दफ़नाए पूरा एक साल होगया है। अब तो वो भी इस सोग से घबरा गए होंगे... छोड़, मेरी जान! अभी ज़िंदगी में जाने और कितनी मौतें देखनी हैं। कुछ आँसू तो अपनी आँखों में जमा रहने दें।”
जीनां को उसकी ये बातें बहुत नागवार मालूम हुई थीं। मगर वो उससे मोहब्बत करती थी, इसलिए अकेले में उसने कई घंटे सोच-सोच कर उसकी इन बातों में मा’नी पैदा किए और आख़िर ख़ुद को ये समझने पर आमादा कर लिया कि करीम दाद जो कुछ कहता है ठीक है! शादी का सवाल आया तो बड़े बूढ़ों ने मुख़ालिफ़त की। मगर ये मुख़ालिफ़त बहुत ही कमज़ोर थी।
वो लोग सोग मना मना कर इतने नहीफ़ होगए थे कि ऐसे मुआ’मलों में सौ फीसदी कामयाब होने वाली मुख़ालिफ़तों पर भी ज़्यादा देर तक न जमे रह सके... चुनांचे करीम दाद का ब्याह होगया। बाजे-गाजे आए, हर रस्म अदा हुई और करीम दाद अपनी महबूबा जीनां को दुल्हन बना कर घर ले आया।
फ़सादात के बाद क़रीब-क़रीब एक बरस से सारा गांव क़ब्रिस्तान सा बना था। जब करीम दाद की बरात चली और ख़ूब धूम धड़का हुआ तो गांव में कई आदमी सहम सहम गए। उनको ऐसा महसूस हुआ कि ये करीम दाद की नहीं, किसी भूत-प्रेत की बरात है।
करीम दाद के दोस्तों ने जब उसको ये बात बताई तो वो ख़ूब हंसा। हंसते-हंसते ही उसने एक रोज़ इसका ज़िक्र अपनी नई नवेली दुल्हन से किया तो वो डर के मारे काँप उठी।
करीम दाद ने जीनां की सूहे चूड़े वाली कलाई अपने हाथ में ली, और कहा, “ये भूत तो अब सारी उम्र तुम्हारे साथ चिमटा रहेगा... रहमान साईं की झाड़ फूंक भी उतार नहीं सकेगी।”
जीनां ने अपनी मेहंदी में रची हुई उंगली दाँतों तले दबा कर और ज़रा शर्मा कर सिर्फ़ इतना कहा, “कीमे, तुझे तो किसी से भी डर नहीं लगता।”
करीम दाद ने अपनी हल्की हल्की स्याही माइल भूरी मूंछों पर ज़बान की नोक फेरी और मुस्कुरा दिया, “डर भी कोई लगने की चीज़ है!”
जीनां का ग़म अब बहुत हद तक दूर हो चुका था। वो माँ बनने वाली थी। करीम दाद उसकी जवानी का निखार देखता तो बहुत ख़ुश होता और जीनां से कहता, “ख़ुदा की क़सम जीनां, तू पहले कभी इतनी ख़ूबसूरत नहीं थी। अगर तू इतनी ख़ूबसूरत अपने होने वाले बच्चे के लिए बनी है तो मेरी उस से लड़ाई हो जाएगी।”
ये सुन कर जीनां शर्मा कर अपना ठलिया सा पेट चादर से छुपा लेती। करीम दाद हँसता और उसे छेड़ता, ”छुपाती क्यों हो इस चोर को... मैं क्या जानता नहीं कि ये सब बनाव-सिंघार सिर्फ़ तुमने इसी सुअर के बच्चे के लिए किया है।”
जीनां एक दम संजीदा हो जाती, “क्यों गाली देते हो अपने को?”
करीम दाद की स्याही माइल भूरी मूंछें हंसी से थरथराने लगतीं, “करीम दाद बहुत बड़ा सुअर है।”
छोटी ईद आई। बड़ी ईद आई, करीम दाद ने ये दोनों तेहवार बड़े ठाठ से मनाए। बड़ी ईद से बारह रोज़ पहले उसके गांव पर बलवाइयों ने हमला किया था और उसका बाप रहीम दाद और जीनां का भाई फ़ज़ल इलाही क़त्ल हुए थे।
जीनां उन दोनों की मौत को याद करके बहुत रोती थी! मगर करीम दाद की सदमों को याद न रखने वाली तबीयत की मौजूदगी में इतना ग़म न कर सकी, जितना उसे अपनी तबीयत के मुताबिक़ करना चाहिए था।
जीनां कभी सोचती थी तो उसको बड़ा तअ’ज्जुब होता था कि वो इतनी जल्दी अपनी ज़िंदगी का इतना बड़ा सदमा कैसे भूलती जा रही है। माँ-बाप की मौत उसको क़तअ’न याद नहीं थी।
फ़ज़ल इलाही उससे छः साल बड़ा था। वही उसका बाप था, वही उसकी माँ और वही उसका भाई। जीनां अच्छी तरह जानती थी कि सिर्फ़ उसी की ख़ातिर उसने शादी नहीं की और ये तो सारे गांव को मालूम था कि जीनां ही की इस्मत बचाने के लिए उसने अपनी जान दी थी।
उसकी मौत जीनां की ज़िंदगी का यक़ीनन बहुत ही बड़ा हादिसा था। एक क़ियामत थी, जो बड़ी ईद से ठीक बारह रोज़ पहले उस पर यकायक टूट पड़ी थी। अब वो उसके बारे में सोचती थी तो उसको बड़ी हैरत होती थी कि वो इसके असरात से कितनी दूर होती जा रही है।
मुहर्रम क़रीब आया तो जीनां ने करीम दाद से अपनी पहली फ़र्माइश का इज़हार किया। उसे घोड़ा और ताज़ीए देखने का बहुत शौक़ था। अपनी सहेलियों से वो उनके मुतअ’ल्लिक़ बहुत कुछ सुन चुकी थी। चुनांचे उसने करीम दाद से कहा, “मैं ठीक हुई तो ले चलोगे मुझे घोड़ा दिखाने?”
करीम दाद ने मुस्कुरा कर जवाब दिया, “तुम ठीक न भी हुईं तो ले चलूंगा... इस सुअर के बच्चे को भी!”
जीनां को ये गाली बहुत ही बुरी लगती थी, चुनांचे वो अक्सर बिगड़ जाती थी। मगर करीम दाद की गुफ़्तुगू का अंदाज़ कुछ ऐसा पुर-ख़ुलूस था कि जीनां की तल्ख़ी फ़ौरन ही एक नाक़ाबिल-ए-बयान मिठास में तबदील हो जाती थी और वो सोचती कि सुअर के बच्चे में कितना प्यार कूट-कूट के भरा है।
हिंदुस्तान और पाकिस्तान की जंग की अफ़वाहें एक अर्से से उड़ रही थी। असल में तो पाकिस्तान बनते ही बात गोया एक तौर पर तय होगई थी कि जंग होगी और ज़रूर होगी। कब होगी, इसके मुतअ’ल्लिक़ गांव में किसी को मालूम नहीं था।
करीम दाद से जब कोई इसके मुतअल्लिक़ सवाल करता, तो वो ये मुख़्तसर सा जवाब देता, “जब होनी होगी हो जाएगी। फ़ुज़ूल सोचने से क्या फ़ायदा!”
जीनां जब इस होने वाली लड़ाई भिड़ाई के मुतअ’ल्लिक़ सुनती, तो उसके औसान ख़ता हो जाते थे। वो तबअ’न बहुत ही अमन पसंद थी। मामूली तू तू, मैं मैं से भी सख़्त घबराती थी।
इसके इलावा गुज़श्ता बलवों में उसने कई किशत-ओ-ख़ून देखे थे और उन्ही में उसका प्यारा भाई फ़ज़ल इलाही काम आया था। बेहद सहम कर वो करीम दाद से सिर्फ़ इतना कहती, “कीमे, क्या होगा!”
करीम दाद मुस्कुरा देता, “मुझे क्या मालूम, लड़का होगा लड़की।”
ये सुन कर जीनां बहुत ही ज़च बुच होती मगर फ़ौरन ही करीम दाद की दूसरी बातों में लग कर होने वाली जंग के मुतअ’ल्लिक़ सब कुछ भूल जाती। करीम दाद ताक़तवर था, निडर था, जीनां से उसको बेहद मोहब्बत थी।
बंदूक़ ख़रीदने के बाद वो थोड़े ही अ’र्से में निशाने का बहुत पक्का होगया था। ये सब बातें जीनां को हौसला दिलाती थीं, मगर इसके बावजूद तरंजनों में जब वो अपनी किसी ख़ौफ़ज़दा हमजोली से जंग के बारे में गांव के आदमियों की उड़ाई हुई हौलनाक अफ़वाहें सुनती, तो एक दम सुन्न सी हो जाती।
बख़तो दाई जो हर रोज़ जीनां को देखने आती थी। एक दिन ये ख़बर लाई कि हिंदुस्तान वाले दरिया बंद करने वाले हैं। जीनां इसका मतलब न समझी।
वज़ाहत के लिए उसने बख़तो दाई से पूछा, “दरिया बंद करने वाले हैं? कौन से दरिया बंद करने वाले हैं।”
बख़तो दाई ने जवाब दिया, “वो जो हमारे खेतों को पानी देते हैं।”
जीनां ने कुछ देर सोचा और हंस कर कहा, “मौसी तुम भी क्या पागलों की सी बातें करती हो, दरिया कौन बंद कर सकता है... वो भी कोई मोरियां हैं।”
बख़तो ने जीनां के पेट पर हौले हौले मालिश करते हुए कहा, “बीबी, मुझे मालूम नहीं... जो कुछ मैंने सुना तुम्हें बता दिया। ये बात अब तो अख़बारों में भी आगई है।”
“कौन सी बात?” जीनां को यक़ीन नहीं आता था।
बख़तो ने अपने झुर्रियों वाले हाथों से जीनां का पेट टटोलते हुए कहा, “यही दरिया बंद करने वाली।” फिर उसने जीनां के पेट पर उसकी क़मीज़ खींची और उठ कर बड़े माहिराना अंदाज़ में कहा, “अल्लाह ख़ैर रखे तो बच्चा आज से पूरे दस रोज़ के बाद हो जाना चाहिए!”
करीम दाद घर आया, तो सबसे पहले जीनां ने उससे दरियाओं के मुतअ’ल्लिक़ पूछा। उसने पहले बात टालनी चाही, पर जब जीनां ने कई बार अपना सवाल दोहराया तो करीम दाद ने कहा, “हाँ कुछ ऐसा ही सुना है।”
जीनां ने पूछा, “क्या?”
“यही कि हिंदुस्तान वाले हमारे दरिया बंद कर देंगे।”
“क्यों?”
करीम दाद ने जवाब दिया, “कि हमारी फ़सलें तबाह हो जाएं।”
ये सुन कर जीनां को यक़ीन होगया कि दरिया बंद किए जा सकते हैं। चुनांचे निहायत बेचारगी के आलम में उसने सिर्फ़ इतना कहा, “कितने ज़ालिम हैं ये लोग।”
करीम दाद इस दफ़ा कुछ देर के बाद मुस्कुराया, “हटाओ उसको। ये बताओ मौसी बख़तो आई थी?”
जीनां ने बेदिली से जवाब दिया, “आई थी!”
“क्या कहती थी?”
“कहती थी, आज से पूरे दस रोज़ के बाद बच्चा हो जाएगा।”
करीम दाद ने ज़ोर का नारा लगाया, “ज़िंदाबाद।”
जीनां ने उसे पसंद न किया और बड़ बड़ाई, “तुम्हें ख़ुशी सूझती है, जाने यहां कैसी कर्बला आने वाली है।”
करीम दाद चौपाल चला गया। वहां क़रीब-क़रीब सब मर्द जमा थे। चौधरी नत्थू को घेरे, उससे दरिया बंद करने वाली ख़बर के मुतअ’ल्लिक़ बातें पूछ रहे थे। कोई पण्डित नेहरू को पेट भर के गालियां दे रहा था। कोई बददुआएं मांग रहा था।
कोई ये मानने ही से यकसर मुनकिर था कि दरियाओं का रुख़ बदला जा सकता है।
कुछ ऐसे भी थे जिनका ये ख़याल था कि जो कुछ होने वाला है वो हमारे गुनाहों की सज़ा है। उसे टालने के लिए सबसे बेहतर तरीक़ा यही है कि मिल कर मस्जिद में दुआ मांगी जाये।
करीम दाद एक कोने में ख़ामोश बैठा सुनता रहा। हिंदुस्तान वालों को गालियां देने में चौधरी नत्थू सबसे पेश-पेश था। करीम दाद कुछ इस तरह बार-बार अपनी नशिस्त बदल रहा था जैसे उसे बहुत कोफ़्त हो रही है। सब यक ज़बान हो कर ये कह रहे थे कि दरिया बंद करना बहुत ही ओछा हथियार है। इंतिहाई कमीनापन है। ज़लालत है, अज़ीम तरीन ज़ुल्म है, बदतरीन गुनाह है, यज़ीदपन है।
करीम दाद दो-तीन मर्तबा इस तरह खांसा जैसे वो कुछ कहने के लिए ख़ुद को तैयार कर रहा है। चौधरी नत्थू के मुँह से जब एक और लहर मोटी-मोटी गालियों की उठी तो करीम दाद चीख़ पड़ा, “गाली न दे चौधरी किसी को।”
माँ की एक बहुत बड़ी गाली चौधरी नत्थू के हलक़ में फंसी की फंसी रह गई। उसने पलट कर एक अ’जीब अंदाज़ से करीम दाद की तरफ़ देखा जो सर पर अपना साफ़ा ठीक कर रहा था, “क्या कहा?”
करीम दाद ने आहिस्ता मगर मज़बूत आवाज़ में कहा, “मैंने कहा गाली न दे किसी को।”
हलक़ में फंसी हुई माँ की गाली बड़े ज़ोर से बाहर निकाल कर चौधरी नत्थू ने बड़े तीखे लहजे में करीम दाद से कहा, “किसी को? क्या लगते हैं वो तुम्हारे?”
इसके बाद वो चौपाल में जमा शुदा आदमियों से मुख़ातिब हुआ, “सुना, तुम लोगों ने... कहता है गाली न दो किसी को। पूछो इससे वो क्या लगते हैं इसके?”
करीम दाद ने बड़े तहम्मुल से जवाब दिया, “मेरे क्या लगते हैं? मेरे दुश्मन लगते हैं।”
चौधरी के हलक़ से फटा फटा सा क़हक़हा बुलंद हुआ। इस क़दर ज़ोर से कि उसकी मूंछों के बाल बिखर गए, “सुना तुम लोगों ने, दुश्मन लगते हैं और दुश्मन को प्यार करना चाहिए। क्यों बरखु़र्दार?”
करीम दाद ने बड़े बरखु़र्दाना अंदाज़ में जवाब दिया, “नहीं चौधरी, मैं ये नहीं कहता कि प्यार करना चाहिए। मैंने सिर्फ़ ये कहा है कि गाली नहीं देनी चाहिए।”
करीम दाद के साथ ही उसका लँगोटिया दोस्त मीराँ बख़्श बैठा था, उसने पूछा, “क्यों?”
करीम दाद सिर्फ़ मीराँ बख़्श से मुख़ातिब हुआ, “क्या फ़ायदा है यार... वो पानी बंद करके तुम्हारी ज़मीनें बंजर बनाना चाहते हैं और तुम उन्हें गाली दे के ये समझते हो कि हिसाब बेबाक हुआ। ये कहाँ की अक़्लमंदी है। गाली तो उस वक़्त दी जाती है जब और कोई जवाब पास न हो।”
मीराँ बख़्श ने पूछा, “तुम्हारे पास जवाब है?”
करीम दाद ने थोड़े तवक्कुफ़ के बाद कहा, “सवाल मेरा नहीं। हज़ारों और लाखों आदमियों का है। अकेला मेरा जवाब सबका जवाब नहीं हो सकता... ऐसे मुआ’मलों में सोच समझ कर ही कोई पुख़्ता जवाब तैयार किया जा सकता है। वो एक दिन में दरियाओं का रुख़ नहीं बदल सकते। कई साल लगेंगे, लेकिन यहां तो तुम लोग गालियां दे कर एक मिनट में अपनी भड़ास निकाल बाहर कर रहे हो।”
फिर उसने मीराँ बख़्श के कांधे पर हाथ रखा और बड़े ख़ुलूस के साथ कहा, “मैं तो इतना जानता हूँ यार कि हिंदुस्तान को कमीना, रज़ील और ज़ालिम कहना भी ग़लत है।”
मीराँ बख़्श के बजाय चौधरी नत्थू चिल्लाया, “लो और सुनो?”
करीम दाद, मीराँ बख़्श ही से मुख़ातिब हुआ, “दुश्मन से मेरे भाई रहम-ओ-करम की तवक़्क़ो रखना बेवक़ूफ़ी है। लड़ाई शुरू और ये रोना रोया जाये कि दुश्मन बड़े बोर की राईफलें इस्तेमाल कर रहा है। हम छोटे बम गिराते हैं, वो बड़े गिराता है। तो अपने ईमान से कहो ये शिकायत भी कोई शिकायत है। छोटा चाक़ू भी मारने के लिए इस्तेमाल होता है, और बड़ा चाक़ू भी। क्या मैं झूट कहता हूँ।”
मीराँ बख़्श की बजाय चौधरी नत्थू ने सोचना शुरू किया मगर फ़ौरन ही झुँझला गया, “लेकिन सवाल ये है कि वो पानी बंद कर रहे हैं... हमें भूका और प्यासा मारना चाहते हैं।”
करीम दाद ने मीराँ बख़्श के कांधे से अपना हाथ अलहदा किया और चौधरी नत्थू से मुख़ातिब हुआ, “चौधरी जब किसी को दुश्मन कह दिया तो फिर ये गिला कैसा कि वो हमें भूका-प्यासा मारना चाहता है। वो तुम्हें भूका-प्यासा नहीं मारेगा। तुम्हारी हरी-भरी ज़मीनें वीरान और बंजर नहीं बनाएगा तो क्या वो तुम्हारे लिए पुलाव की देगें और शर्बत के मटके वहां से भेजेगा। तुम्हारी सैर-तफ़रीह के लिए यहां बाग़-बगीचे लगाएगा।”
चौधरी नत्थू भन्ना गया, “ये तू क्या बकवास कर रहा है?”
मीराँ बख़्श ने भी हौले से करीम दाद से पूछा, “हाँ यार ये क्या बकवास है?”
“बकवास नहीं है मीराँ बख्शा।” करीम दाद ने समझाने के अंदाज़ में मीराँ बख़्श से कहा, “तू ज़रा सोच तो सही कि लड़ाई में दोनों फ़रीक़ एक दूसरे को पछाड़ने के लिए क्या कुछ नहीं करते, पहलवान जब लंगर लंगोट कसके अखाड़े में उतर आए तो उसे हर दाव इस्तिमाल करने का हक़ होता है...”
मीराँ बख़्श ने अपना घुटा हुआ सर हिलाया, “ये तो ठीक है!”
करीम दाद मुस्कुराया, “तो फिर दरिया बंद करना भी ठीक है। हमारे लिए ये ज़ुल्म है, मगर उनके लिए रवा है।”
“रवा क्या है... जब तेरी जीब प्यास के मारे लटक कर ज़मीन तक आजाएगी तो मैं फिर पूछूंगा कि ज़ुल्म रवा है या नारवा... जब तेरे बाल-बच्चे अनाज के एक एक दाने को तरसेंगे तो फिर भी यही कहना कि दरिया बंद करना बिल्कुल ठीक था।”
करीम दाद ने अपने ख़ुश्क होंटों पर ज़बान फेरी और कहा, “मैं जब भी कहूंगा चौधरी... तुम ये क्यों भूल जाते हो कि सिर्फ़ वो हमारा दुश्मन है। क्या हम उसके दुश्मन नहीं। अगर हमारे इख़्तियार में होता, तो हमने भी उसका दाना-पानी बंद किया होता... लेकिन अब कि वो कर सकता है, और करने वाला है तो हम ज़रूर इसका कोई तोड़ सोचेंगे... बेकार गालियां देने से क्या होता है?
दुश्मन तुम्हारे लिए दूध की नहरें जारी नहीं करेगा चौधरी नत्थू... उससे अगर होसका तो वो तुम्हारे पानी की हर बूँद में ज़हर मिला देगा। तुम उसे ज़ुल्म कहोगे, वहशियानापन कहोगे, इसलिए कि मारने का ये तरीक़ा तुम्हें पसंद नहीं। अजीब सी बात है कि लड़ाई शुरू करने से पहले दुश्मन से निकाह की सी शर्तें बंधवाई जाएं... उससे कहा जाये कि देखो मुझे भूका-प्यासा न मारना, बंदूक़ से और वो भी इतने बोर की बंदूक़ से। अलबत्ता तुम मुझे शौक़ से हलाक कर सकते हो। असल बकवास तो ये है... ज़रा ठंडे दिल से सोचो।”
चौधरी नत्थू झुंझलाहट की आख़िरी हद तक पहुंच गया, “बर्फ़ ला के रख मेरे दिल पर।”
“ये भी मैं ही लाऊं।” ये कह कर करीम दाद हंसा। मीराँ बख़श के कांधे पर थपकी दे कर उठा और चौपाल से चला गया।
घर की डयोढ़ी में दाख़िल हो ही रहा था कि अंदर से बख़तो दाई बाहर निकली। करीम दाद को देख कर उसके होंटों पर पोपली मुस्कुराहट पैदा हुई।
“मुबारक हो कीमे, चांद सा बेटा हुआ है। अब कोई अच्छा सा नाम सोच उसका ?”
“नाम?” करीम दाद ने एक लहज़े के लिए सोचा, “यज़ीद... यज़ीद!”
बख़तो दाई का मुँह हैरत से खुला का खुला रह गया। करीम दाद ना’रे लगाता अन्दर घर में दाख़िल हुआ। जीनां चारपाई पर लेटी थी। पहले से किसी क़दर ज़र्द, उसके पहलू में एक गुलगोथना सा बच्चा चपड़-चपड़ अंगूठा चूस रहा था। करीम दाद ने उसकी तरफ़ प्यार भरी फ़ख़्रिया नज़रों से देखा और उसके एक गाल को उंगली से छेड़ते हुए कहा, “ओए मेरे यज़ीद!”
जीनां के मुँह से हल्की सी मुतअ’ज्जिब चीख़ निकली, “यज़ीद?”
करीम दाद ने ग़ौर से अपने बेटे का नाक-नक़्शा देखते हुए कहा, “हाँ यज़ीद... ये इसका नाम है।”
जीनां की आवाज़ बहुत नहीफ़ होगई, “ये तुम क्या कह रहे हो कीमे?... यज़ीद?”
करीम दाद मुस्कुराया, “क्या है इसमें? नाम ही तो है!”
जीनां सिर्फ़ इस क़दर कह सकी, “मगर किसका नाम?”
करीम दाद ने संजीदगी से जवाब दिया, “ज़रूरी नहीं कि ये भी वही यज़ीद हो... उसने दरिया का पानी बंद किया था... ये खोलेगा!”
- पुस्तक : یزید
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