फिर ये हंगामा...
स्टोरीलाइन
यह कहानी कई स्वतंत्र कहानियों का संग्रह है, जिनके ज़रिए से मज़हबी रिवायतों और उसके अन्तर्विरोधों, रईसों की रईसाना हरकतों, मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवारों के अन्तर्विरोध से पूर्ण सम्बन्धों को दिखाया गया है। कहानी समाज और उसमें मौजूद धार्मिक आडंबर पर तीखा वार करते हुए बताती है कि जब सब कुछ पहले से तय है तो फिर यह हंगामा क्यों मचा हुआ है?
“मज़हब दरअसल बड़ी चीज़ है। तकलीफ़ में, मुसीबत में, नाकामी के मौक़ा पर, जब हमारी अक़्ल काम नहीं करती और हमारे हवास मुख़्तल होते हैं, जब हम एक ज़ख़्मी जानवर की तरह चारों तरफ़ डरी हुई बेबसाना नज़रें दौड़ाते हैं, उस वक़्त वो कौन सी ताक़त है जो हमारे डूबते हुए दिल को सहारा देती है? मज़हब! और मज़हब की जड़ ईमान है। ख़ौफ़ और ईमान।
मज़हब की ता’रीफ़ लफ़्ज़ों में नहीं की जा सकती। उसे हम अक़्ल के ज़ोर से नहीं समझ सकते। ये एक अंदरूनी कैफ़ीयत है...”
“क्या कहा? अंदरूनी कैफ़ीयत?”
“ये कोई हँसने की बात नहीं, मज़हब एक आसमानी ज़िया है जिसके पर्तो में हम कायनात का जलवा देखते हैं। ये एक अंदरूनी...”
“ख़ुदा के वास्ते कुछ और बातें कीजीए, आपको इस वक़्त मेरी अंदरूनी कैफ़ियत का अंदाज़ा नहीं मालूम होता। मेरे पेट में सख़्त दर्द हो रहा है इस वक़्त मुझे आसमानी ज़िया की ज़रूरत बिल्कुल नहीं। मुझे जुलाब...”
एक-बार रात को मैं नॉवेल पढ़ने में मह्व था कि चुपके से कोई मेरे कमरे में दाख़िल हुआ और मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। मैंने जो आँख उठाई तो क्या देखा कि मियां इब्लीस खड़े हैं।
मैंने कहा, “इब्लीस साहिब! इस वक़्त आख़िर आपकी मुराद मेरे यहां आने से क्या है, में एक बहुत दिलचस्प नॉवेल पढ़ने में मशग़ूल हूँ, ख़्वाह-मख़ाह आप फिर चाहते हैं कि मैं किताब बंद कर के आपसे मज़हबी बहस शुरू करूँ। मेरे नज़दीक नॉवेल पढ़ना मज़हबी बातों में सर खपाने से बेहतर है। आपने जो मेरे दिल में वस्वसा पैदा करने की कोशिश की है मैं हरगिज़ उसका शिकार नहीं होना चाहता।”
मेरे इस कहने पर वो इब्लीस नुमा शख़्स मुड़ा और कमरे के बाहर जाने लगा। इस तरह एक फ़रिश्ते के साथ बर्ताव करने पर मेरा दिल मुझे कुछ-कुछ मलामत करने लगा ही था कि वो शख़्स यकबारगी मेरी तरफ़ पल्टा और अफ़सोस भरी आवाज़ में मुझसे कहा,
“मैं इब्लीस नहीं जिबरईल हूँ। मैं तुम पर इस का इल्ज़ाम नहीं रखा चाहता कि तुमने मुझे इब्लीस कहा। इबलीस भी आख़िर मेरे ही ऐसा एक फ़रिश्ता है। तुम तो क्या तुमसे बड़े लोगों ने अक्सर मुझे इब्लीस समझ कर घर से निकाल दिया। पयम्बरों तक से ये ग़लती सरज़द हो चुकी है। बात ये है कि मैं अच्छाई का फ़रिश्ता हूँ। मेरी सूरत से तक़द्दुस टपकता है। अगर इब्लीस की तरह मैं हसीन होता तो शायद लोग मुझसे इस तरह का बर्ताव न करते। और भला आप ये कैसे समझे कि मैं आपसे मज़हबी बहस करना चाहता हूँ? मुझे बहस से कोई सरोकार नहीं। हर बहस चूँकि वो अक़्ल और मंतिक़ पर मब्नी होती है शैतानी चीज़ है। मज़हब की जड़ ईमान है अगर तुम्हारी जड़ मज़बूत है तो फिर ख़ुदा ख़ुद मज़हबी बहस में तुम्हारा साथ देता है और जब मदद-ए-ख़ुदा शामिल-ए-हाल हो तो फिर अक़्ल से क्या सरोकार? मज़हब दरअसल बड़ी अच्छी चीज़ है...”
अक़्ल और ईमान, आसमान और ज़मीं, इन्सान और फ़रिश्ता, ख़ुदा और शैतान, मैं क्या सोच रहा हूँ? सूखी हुई ख़ुश्क ज़मीन बरसात में बारिश से सैराब हो जाती है और उसमें से अ’जब तरह की ख़ुशगवार , सोंधी ख़ुशबू आने लगती है। क़हत में लोग भूके मरते हैं। बूढ़े, बच्चे, जवान, औरत, मर्द आँखों में हलक़े पड़े हुए, चेहरे ज़र्द, हड्डियां, पसलियाँ झुर्री पड़ी हुई खाल को चीर कर मालूम होता है बाहर निकली पड़ रही हैं। भूक की तकलीफ़, हैज़ा की बीमारी, क़ै, दस्त, मक्खियां, मौत कोई लाशों को गाड़ने या जलाने वाला नहीं, लाशें सड़ती हैं और उनमें से अ’जब तरह की बदबू आने लगती है।
एक रईस के यहां एक विलायती कुत्ता पला था। उसका नाम था शेरा। उसके लिए रोज़ाना का रातिब मुक़र्रर था, और वो आम तौर से घर के अहाते के अंदर ही रहा करता था। कभी -कभी बाज़ारी कुतियों के पीछे अलबत्ता भागता था। जब वो बड़ा हुआ तब उसकी ये आ’दत भी बढ़ी। मुहल्ले में और जो दुबले, पतले, बाज़ारी कुत्ते थे वो जब शेरा को आता देखते तो अपनी कुतियों को छोड़कर भाग जाते और दूर से खड़े हो कर शेरा पर भौंकते। शेरा कुतियों के साथ रहता और उन कुत्तों की तरफ़ रुख़ भी न करता। थोड़े दिनों के बाद इत्तिफ़ाक़ ऐसा हुआ कि बड़ा भारी शेरा से तक़रीबन दूने जिस्म का बाज़ारी कुत्ता उस मुहल्ले में कहीं से आ गया और वो शेरा से लड़ने पर आमादा हो गया। दो एक दफ़ा शेरा से और उससे झड़प भी हुई। ऐसे मौक़ा पर कुतियाँ तो सब भाग जातीं और सारे बाज़ारी कुत्ते अपने गिरोह के पेशवा के साथ मिलकर शेरा पर हमला करते। रफ़्ता-रफ़्ता शेरा का अपने घर से बाहर निकलना ही न सिर्फ बंद हो गया बल्कि बाज़ारी कुत्तों का गिरोह उल्टे शेरा पर हमला करने के लिए उसके अहाते के अंदर आने लगा। जब इस क़िस्म का हमला होता तो घर में कुत्तों के भूँकने की वजह से कान पड़ी आवाज़ न सुनाई देती। नौकर वग़ैरा जो क़रीब होते वो शेरा को छुड़ाने के लिए लपकते और बड़ी बुरी मुश्किलों से शेरा को उस के दुश्मनों से बचाते। शेरा कई- कई दफ़ा ज़ख़्मी हुआ और अब घर के अंदर छुपा बैठा रहता। बाज़ारी कुत्तों की पूरी फ़तह हो गई। एक दिन अलस्सुबह शेरा अपने घर के अहाते में फिर रहा था कि बाहर वाले कुत्तों के गिरोह ने बड़े कुत्ते की सरकर्दगी में उस पर हमला किया। घर में सब सो रहे थे। मगर गुल और शोर इतना हुआ कि लोग जाग उठे। रईस साहिब जिनका कुत्ता था अंदर से बाहर निकल पड़े और इस हंगामे को देखकर अपनी बंदूक़ उठा लाए। इन्होंने बड़े बाज़ारी कुत्ते पर निशाना लगा कर फ़ायर किया और उस का वहीं ख़ात्मा कर दिया, बाक़ी कुत्ते भाग गए। शेरा ज़ख़्मी शुदा अपने मालिक के क़दमों पर आकर लोटने लगा। कमीने,रज़ील बाज़ारी कुत्तों की कमर टूट गई। शरीफ़, ख़ानदानी, विलायती कुत्ता सलामत रह गया और फिर इस तरह से मज़े करने लगा।
इन्सानियत किसे कहते हैं?
गोमती हज़ारों बरस से यूँही बहती चली जा रही है। तुग़्यानियाँ आती हैं, आस-पास की आबादी को मिटा कर दरिया फिर उसी रंग से आहिस्ता-आहिस्ता बहने लगता है। दरिया के किनारे एक जगह एक छोटा सा मंदिर है। उस मंदिर की नीव मालूम होता है बालू पर थी। बालू को दरिया के धारे ने काट दिया। मंदिर का एक हिस्सा झुक गया। अब मुक़द्दर (मंदिर- ख-अ) तिर्छा हो गया। मगर अभी तक क़ायम है। थोड़े दिन बाद बिल्कुल मिस्मार हो जाएगा। थोड़े दिन तक खन्डर का निशान रहेगा। उसके बाद मंदिर जहां पहले था वहां से दरिया बहने लगेगा।
आज त्योहार है, नहान का दिन है। सुब्ह-सवेरे से दरिया के किनारे के मंदिरों और घाटों पर भीड़ है। लोग मंत्र पढ़ते हैं और डुबकियां लेते जाते हैं। दरिया का पानी मैला मा’लूम होता है। लहरों पर गेंदे और गुलाब के फूलों की पंखुड़ियां ऊपर नीचे होती हुई बहती चली जा रही हैं। कहीं- कहीं किनारों पर जा कर बहुत से फूलपत्तियां, छोटे-छोटे लकड़ी के टुकड़े, पिए हुए सिगरेट, औरतों के कपड़ों से गिरी हुई सुनहरी चमकियाँ, मुर्दा मछली और इसी क़िस्म की और चीज़ें इकट्ठे हो कर रुक गई हैं।
गोमती नदी, शेरा कुत्ता, मुर्दा मछली, आसमान पर बहते हुए बादल और ज़मीन पर सड़ती हुई लाशें, उन पर रहमते ख़ुदावंदी अपना साया किए हुए है।
कल्लू मेहतर के जवान लड़के को साँप ने डस लिया। बरसात का मौसम था, वो सेहन में ज़मीन पर सो रहा था। सुबह होते हुए, उस की बाईं कुहनी के क़रीब साँप ने काटा। उसको ख़बर तक नहीं हुई। पाँच बजे सुबह को वो उठा, बाज़ू पर उसने निशान देखे, ख़फ़ीफ़ सी तकलीफ़ महसूस की। अपनी माँ को उसने ये निशान दिखाए और ये ख़्याल करके कि किसी कीड़े-मकोड़े के काटने का निशान है, वो झाड़ू देने में मशग़ूल हो गया। कल्लू मेहतरऔर उसके सारे बीवी-बच्चे एक घर में नौकर थे। उनकी पंद्रह रुपया महीना तनख़्वाह थी, रहने के लिए शागिर्द पेशा में एक कोठरी थी जिसमें कल्लू, उस की बीवी, उसकी दो लड़कियां और उसका लड़का, सब के सब रहते थे। पंद्रह रुपया महीना, एक कोठरी और कभी-कभी बचा हुआ जूठा खाना और फटे-पुराने कपड़े, कल्लू को जिन साहिब के यहां ये सब कुछ मिलता था वो उनको ख़ुदा से कम नहीं समझता था। कल्लू का लड़का दस-पंद्रह मिनट से ज़्यादा काम न कर सका, उसका सर घूमने लगा और उसके बदन भर में सरसराहाट महसूस होने लगी। छः बजते-बजते वो पलंग पर गिर कर एड़ीयां रगड़ने लगा। उसके मुँह से फ़ेन निकलने लगा, उसकी आँखें पथरा गईं। ज़हर उसके रग-ओ-पै में सरायत कर गया और मौत ने उसे अपने बेदर्द शिकंजे में जकड़ लिया। उसके माँ-बाप ने रोना शुरू किया। सारे घर में ख़बर मशहूर हो गई कि कल्लू के लड़के को साँप ने डस लिया। सबने दो और मन तजवीज़ किया। कल्लू के आक़ा के साहबज़ादे बहुत ज़्यादा ग़रीबपर्वर और रहमदिल थे। वो ख़ुद कल्लू की कोठरी तक आए और कल्लू के लड़के को ख़ुद उन्होंने अपने हाथ से छुआ और दवा पिलाई, मगर कल्लू की अँधेरी कोठरी इतनी ज़्यादा गंदी थी और उसमें इतनी बदबू थी कि साहबज़ादे से चार- पाँच मिनट भी न ठहरा गया। रहम दिली और ग़रीबपरर्वरी की आख़िर एक इंतिहा होती है। वो वापस तशरीफ़ लाकर अच्छी तरह नहाए, कपड़े बदल कर रूमाल में इतर लगा कर सूँघा तब जाकर उनकी तबीअ’त दुरुस्त हुई। रहा कल्लू का लड़का वो बदनसीब एक बजे के क़रीब मर गया। उस कोठरी से रोने-पीटने की आवाज़ रात तक आती रही, जिसकी वजह से सारे घर में उदासी छा गई।तजहीज़-ओ-तकफ़ीन के लिए कल्लू ने दस रुपये पेशगी लिये। रात को आठ-नौ बजे के क़रीब कल्लू के लड़के की लाश उठ गई।
हामिद साहिब अपनी रिश्ते की बहन सुल्ताना पर आशिक़ थे। हामिद साहिब ने सुल्ताना बेगम को सिर्फ दूर से देखा है। एक दो लफ़्ज़ों के इ’लावा कभी आपस में उनसे देर तक बातें नहीं हुईं। मगर इश्क़ की बिजली के लिए लफ़्ज़ों की गुफ़्तगु की, जान-पहचान की क्या ज़रूरत? हामिद साहब दिल ही दिल में जला करते, झूम-झूम कर शे’र पढ़ते, और कभी-कभी जब इश्क़ की शिद्दत होती तो ग़ज़ल लिख डालते और रात को दरिया के किनारे जाकर चुप बैठते और ठंडी साँसें भरते। सिर्फ उनके दो गहरे दोस्त हामिद के इश्क़ का राज़ जानते थे। इस तरह अपने दिल की आग छुपाने पर वो हामिद की ता’रीफ़ किया करते थे,शुरका का दस्तूर यही है,
देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना
शेवा-ए-इश्क़ नहीं हुस्न को रुस्वा करना!
हामिद हफ़्ते में एकबार से ज़्यादा शायद ही अपने चचा के घर जाते रहे हों। मगर जाने के एक दिन पहले से उनकी बेचैनी की इंतिहा न रहती। शाइर ने ठीक कहा है:
वादा-ए-वस्ल चूँ शोद नज़दीक
आतिश-ए-शौक़ तेज़-तर गर्दद
उनके दोस्त जब हामिद की ये कैफ़ीयत देखते तो मुस्कुराते और जैल का शे’र पढ़ते,
इश्क़ पर ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश ग़ालिब
कि लगाए ना लगे और बुझाए ना बने
हामिद साहिब शरमाते, हंसते, ख़फ़ा होते, घबराते, दिल पर हाथ रखते और अपने दोस्तों से इल्तिजा करते कि उन्हें छेड़ें मत।
सुल्ताना बेगम शरीफ़ ज़ादी ठहरीं। इश्क़ या मुहब्बत के अलफ़ाज़, बाइस्मत बहू-बेटीयों की ज़बान तक आना नामुनासिब हैं। उन्होंने अपने हामिद भाई से आँख मिलाकर शायद ही कभी बात की हो मगर जब वो हामिद भाई को अपने सामने घबराते और झेंपते देखतीं तो दिल ही दिल में सोचतीं कि शायद इश्क़ इसी चीज़ का नाम तो नहीं! हामिद बेचारे को पाक मुहब्बत थी इसलिए अगर कभी सुल्ताना बेगम और वो कमरे में चंद मिनट के लिए अकेले रह भी जाते तो सिवाए इसके कि वो डरते-डरते बहुत दबी हुई एक ठंडी सांस लें और किसी ‘नाजायज़’ तरीक़े से इज़हारे इश्क़ ना करते,एक मुद्दत तक इश्क़ का सिलसिला यूँही जारी रहा।
जब हामिद साहिब की नौकरी हो गई तो उनके दिल में शादी का ख़्याल आया। उनके वालदैन को भी इस की फ़िक्र हुई। सुल्ताना बेगम की वालिदा भी अपनी बच्ची के लिए बर की तलाश में थीं। हामिद साहिब ने बड़ी मुश्किल से अपनी वालिदा को इस बात से आगाह करवा दिया कि वो सुल्ताना बेगम से शादी करना चाहते हैं।
शादी का पयाम भेजा गया। मगर सुल्ताना बेगम की वालिदा को हामिद मियां की वालिदा की सूरत से नफ़रत थी। हमेशा से उन दो ख़ातूनों में अदावत और दुश्मनी थी हामिद मियां की वालिदा अगर अच्छे से अच्छा कपड़ा और ज़ेवर भी पहने होतीं तब भी सुल्ताना बेगम की माँ, उन पर कोई न कोई फ़िक़रा ज़रूर कसतीं,और उनके लिबास में कुछ ना कुछ ऐब ज़रूर निकालतीं। अगर एक के पास कोई ज़ेवर होता, जो दूसरे के पास ना होता तो दूसरी बेगम ज़रूर आइन्दा मुलाक़ात के मौक़े’ पर उससे बेहतर उसी क़िस्म का ज़ेवर पहने होतीं। एक से बर्ख़ास्त शुदा मामा को दूसरे घर में ज़रूर नौकरी मिलती।
हामिद मियां के घर से जब शादी का पयाम आया तो सुल्ताना बेगम की वालिदा ने हंसकर बात टाल दी। उन्होंने कोई साफ़ जवाब नहीं दिया। वो चारों तरफ़ नज़र दौड़ा रही थीं और चाहती थीं कि पहले सुल्ताना बेगम के लिए कोई बर ढूंढ लें उसके बाद हामिद मियां की निस्बत से साफ़-साफ़ इनकार कर दें। हामिद मियां की वालिदा इन तरकीबों को ख़ूब समझती थीं, उनके ग़ुस्सा की कोई इंतिहा न थी। जब ख़ानदान में अच्छा ख़ासा, सही सालिम, कमाता-खाता, सआदतमंद लड़का मौजूद हो तो सुल्ताना की घर से बाहर शादी करने के क्या मअ’नी?
मगर हामिद को इश्क़ सादिक़ था, उन्होंने अपनी वालिदा से कहा कि वो कोशिश किए जाएं। यूँही एक मुद्दत गुज़र गई। कुछ ख़ुदा का करना ऐसा हुआ कि सुल्ताना बेगम की वालिदा को अपनी लड़की के लिए इस दरमयान में कोई मुनासिब बर भी नहीं मिला। सुल्ताना बेगम की उम्र उन्नीस बरस की हो गई। उनकी वालिदा अब ज़्यादा इंतिज़ार न कर सकीं, आख़िरकार वो रज़ामंद हो गईं।
हामिद मियां की सुल्ताना बेगम से शादी हो गई। उनकी शादी हुए दो बरस से कुछ ज़्यादा हो गए। आशिक़ की मुराद बर आई। ख़ुदा के फ़ज़ल से घर में दो बच्चे भी हैं।
एक ग़रीब औरत एक तारीक अँधेरी कोठरी में एक टूटी हुई झिलंगी चारपाई पर पड़ी कराह रही है। दर्द की तकलीफ़ इतनी है कि सांस नहीं ली जाती। रात का वक़्त है और सर्दी का मौसम। औरत के बच्चा होने वाला है।
एक अँधेरी रात में एक ग़रीब औरत, सबसे छुपा कर चुपके से अपने ग़रीब आशिक़ से मिलने गई। जब उस औरत को मौक़ा’ मिलता वो उस मर्द से मिलने जाती।
इश्क़ की लज़्ज़त, मौत की तकलीफ़। ये पहाड़ जिनकी चोटियां नीले आसमान से जा कर टकराती हैं क्यों खड़े हैं? समुंदर की लहरें।
घड़ी की टीक-टीक और पानी के एक-एक क़तरे के टपकने की आवाज़ और ख़ामोश, और दिल की धड़कन, मुहब्बत की एक घड़ी, रगों में ख़ून के दौड़ने की आवाज़ सुनाई देती है। आँखें गुफ़्तगु करती हैं और सुनती हैं। सूअर, पाजी, उल्लू, हरामज़ादा... गालियां और सख़्त तेज़-धूप, जो खाल को मालूम होता है झुलसा कर हड्डी तक पिघला देगी। एक ज़मींदार और उनका काश्तकार, जिसके पास लगान देने के रुपये नहीं। साहबज़ादे ने वालिद को दूसरा ख़त भेजा है जिसमें उनसे बताकीद रुपये मांगे हैं, वकालत के इम्तिहान की फ़ीस चार दिन के अंदर जानी ज़रूर है। वालिद साहिब अपने साहबज़ादे की ता’लीम के लिए काश्तकार से रुपये वसूल कर रहे हैं।
चारों तरफ़ साँप रेंग रहे हैं। काले-काले, लंबे फन उठा-उठा कर झूम रहे हैं। उनको कौन मारे? किस चीज़ से मारें?
बरसात में बादल की गरज और पहाड़ों की तन्हाई में एक चश्मे के बहने की आवाज़, लहलहाते हुए शादाब खेत और बंदूक़ के फ़ायरकी तड़ातेदार सदा, उसके बाद एक ज़ख़्मी सारस की दर्दनाक काएं, कायं कायं।
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