पंद-नामा
रोचक तथ्य
Dagh Dehlavi's exquisite work is for the guidance of new poets in which the art of poetry has been highlighted from various aspects. This pamphlet mentions various literary and objective terms, the meaning of which should be known to the students of literature. He had instinctively composed this instruction for his students on the orders of his student Ahsan Marharvi.
अपने शागिर्दों को ये आम हिदायत है मिरी
कि समझ लें तह-ए-दिल से वो बजा-ओ-बेजा
शेर-गोई में रहें मद्द-ए-नज़र ये बातें
कि बग़ैर इन के फ़साहत नहीं होती पैदा
चुस्त बंदिश हो न हो सुस्त यही ख़ूबी है
वो फ़साहत से गिरा शेर में जो हर्फ़ दबा
अरबी फ़ारसी अल्फ़ाज़ जो उर्दू में कहें
हर्फ़-ए-इल्लत का बुरा इन में है गिरना दबना
अलिफ़-ए-वस्ल अगर आए तो कुछ ऐब नहीं
लेकिन अल्फ़ाज़ में उर्दू के ये गिरना है रवा
जिस में गुंजलक न हो थोड़ी भी सराहत है वही
वो किनाया है जो तसरीह से भी हो औला
ऐब-ओ-ख़ूबी का समझना है इक अम्र-ए-नाज़ुक
पहले कुछ और था अब रंग-ए-ज़बाँ और हुआ
यही उर्दू है जो पहले से चली आती है
अहल-ए-देहली ने इसे और से अब और किया
मुस्तनद अहल-ए-ज़बाँ ख़ास हैं दिल्ली वाले
इस में ग़ैरों का तसर्रुफ़ नहीं माना जाता
जौहरी नक़्द-ए-सुख़न के हैं परखने वाले
है वो टिकसाल से बाहर जो कसौटी न चढ़ा
बाज़ अल्फ़ाज़ जो दो आए हैं इक मा'ना में
एक को तर्क किया एक को क़ाएम रक्खा
तर्क जो लफ़्ज़ किया अब वो नहीं मुस्ता'मल
अगले लोगों की ज़बाँ पर वही देता था मज़ा
गरचे ता'क़ीद बुरी है मगर अच्छी है कहीं
हो जो बंदिश में मुनासिब तो नहीं ऐब ज़रा
शे'र में हश्व-ओ-ज़वाएद भी बुरे होते हैं
ऐसी भरती को समझते नहीं शाइ'र अच्छा
गर किसी शेर में ईता-ए-जली आता है
वो बड़ा ऐब है कहते हैं उसे बे-मअ'ना
इस्तिआ'रा जो मज़े का हो मज़े की तश्बीह
इस में इक लुत्फ़ है इस कहने का फिर क्या कहना
इस्तिलाह अच्छी मसल अच्छी हो बंदिश अच्छी
रोज़-मर्रा भी रहे साफ़ फ़साहत से भरा
है इज़ाफ़त भी ज़रूरी मगर ऐसी तो न हो
एक मिसरे में जो हो चार जगह बल्कि सिवा
अत्फ़ का भी है यही हाल यही सूरत है
वो भी आए मुतवातिर तो निहायत है बुरा
लफ़्फ़-ओ-नश्र आए मुरत्तब वो बहुत अच्छा है
और हो ग़ैर-मुरत्तब तो नहीं कुछ बेजा
शेर में आए जो ईहाम किसी मौक़े पर
कैफ़ियत उस में भी है वो भी निहायत अच्छा
जो न मर्ग़ूब-ए-तबीअत हो बुरी है वो रदीफ़
शे'र बे-लुत्फ़ है गर क़ाफ़िया हो बे-ढँगा
एक मिसरे में हो तुम दूसरे मिसरे में हो तू
ये शुतुर-गुर्बा हुआ मैं ने इसे तर्क किया
चंद बहरें मुतआ'रिफ़ हैं फ़क़त उर्दू में
फ़ारसी में अरबी में हैं मगर इन से सिवा
शेर में होती है शाइ'र को ज़रूरत इस की
गर अरूज़ उस ने पढ़ा वो है सुख़न-वर दाना
मुख़्तसर ये है कि होती है तबीअत उस्ताद
देन अल्लाह की है जिस को ये ने'मत हो अता
बे-असर के नहीं होता कभी मक़्बूल कलाम
और तासीर वो शय है जिसे देता है ख़ुदा
गरचे दुनिया में हुए और हैं लाखों शाइ'र
क्स्ब-ए-फ़न से नहीं होती है ये ख़ूबी पैदा
सय्यद-'अहसन' जो मिरे दोस्त भी शागिर्द भी हैं
जिन को अल्लाह ने दी फ़िक्र-ए-रसा तब-ए-रसा
शे'र के हुस्न-ओ-क़बाएह जो उन्हों ने पूछे
उन की दरख़्वास्त से इक क़ितआ ये बरजस्ता कहा
पंद-नामा जो कहा 'दाग़' ने बे-कार नहीं
काम का क़ितआ है ये वक़्त पे काम आएगा
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