बद-शुगूनी
अजब घड़ी थी
किताब कीचड़ में गिर पड़ी थी
चमकते लफ़्ज़ों की मैली आँखों में उलझे आँसू बुला रहे थे
मगर मुझे होश ही कहाँ था
नज़र में इक और ही जहाँ था
नए नए मंज़रों की ख़्वाहिश में अपने मंज़र से कट गया हूँ
नए नए दाएरों की गर्दिश में अपने मेहवर से हट गया हूँ
सिला जज़ा ख़ौफ़ ना-उमीदी
उमीद इम्कान बे-यक़ीनी
हज़ार ख़ानों में बट गया हूँ
अब इस से पहले कि रात अपनी कमंद डाले ये चाहता हूँ कि लौट जाऊँ
अजब नहीं वो किताब अब भी वहीं पड़ी हो
अजब नहीं आज भी मिरी राह देखती हो
चमकते लफ़्ज़ों की मैली आँखों में उलझे आँसू
अजब नहीं मिरे लफ़्ज़ मुझ को मुआ'फ़ कर दें
हवा-ओ-हिर्स-ओ-हवस की सब गर्द साफ़ कर दें
अजब घड़ी थी
किताब कीचड़ में गिर पड़ी थी
- पुस्तक : Harf-e-Baaryab (पृष्ठ 27)
- रचनाकार : IftiKHar Arif
- प्रकाशन : Educational Publishing House New Dehli (2004)
- संस्करण : 2004
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