उम्र जो बे-ख़ुदी में गुज़री है
उम्र जो बे-ख़ुदी में गुज़री है
बस वही आगही में गुज़री है
कोई मौज-ए-नसीम से पूछे
कैसी आवारगी में गुज़री है
उन की भी रह सकी न दाराई
जिन की अस्कंदरी में गुज़री है
आसरा उन की रहबरी ठहरी
जिन की ख़ुद रहज़नी में गुज़री है
आस के जुगनुओ सदा किस की
ज़िंदगी रौशनी में गुज़री है
हम-नशीनी पे फ़ख़्र कर नादाँ
सोहबत-ए-आदमी में गुज़री है
यूँ तो शायर बहुत से गुज़रे हैं
अपनी भी शायरी में गुज़री है
मीर के बाद ग़ालिब ओ इक़बाल
इक सदा, इक सदी में गुज़री है
- पुस्तक : Aazadi ke baad dehli men urdu gazal (पृष्ठ 301)
- रचनाकार : Professor Unwan Chishti
- संस्करण : 1989
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