था जो शेर-ए-रास्त सर्व-ए-बोसतान-ए-रेख़्ता
था जो शेर-ए-रास्त सर्व-ए-बोसतान-ए-रेख़्ता
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
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था जो शेर-ए-रास्त सर्व-ए-बोसतान-ए-रेख़्ता
अब वही है लाला-ए-ज़र्द-ए-ख़िज़ान-ए-रेख़्ता
आगे कछवे की कमाँ के क़द्र क्या उस की रही
थी फ़रीद-आबादी अपनी गो कमान-ए-रेख़्ता
ख़ुश्क करते हैं जो फ़िक्र-ए-ख़ुश्क से अपना दिमाग़
जानते हैं उस को मग़्ज़-ए-उस्तुख़्वान-ए-रेख़्ता
पेच दे दे लफ़्ज़ ओ मअनी को बनाते हैं कुलफ़्त
और वो फिर उस पे रखते हैं गुमान-ए-रेख़्ता
फ़हम में इतना नहीं आता बहुक्म-ए-राय-ए-पस्त
इस बुलंदी से घटी जाती है शान-ए-रेख़्ता
ख़्वान-ए-यग़्मा बन के पहुँचा हर कस-ओ-ना-कस के हाथ
नित्त'अ-ए-सुल्ताँ जो था मख़्सूस ख़्वान-ए-रेख़्ता
है रग-ए-अब्र-ए-बहारी हाथ में मेरे क़लम
रश्क-ए-जन्नत जिस से है ये गुलिस्तान-ए-रेख़्ता
फ़ारसी अब हो गई है नंग उस के वास्ते
फ़ारसी का नंग था जैसे क़ुरआन-ए-रेख़्ता
चाँद तारे का दुपट्टा में दिया उस को बना
वर्ना इस ज़ीनत से कब था आसमान-ए-रेख़्ता
रफ़्ता रफ़्ता हाए उस का और आलम हो गया
नज़्म से अपनी गिरा नज़्म-ए-बयान-ए-रेख़्ता
जब से मअ'नी-बंदी का चर्चा हुआ ऐ 'मुसहफ़ी'
ख़लते में जाता रहा हुस्न-ए-ज़बान-ए-रेख़्ता
- पुस्तक : kulliyat-e-mas.hafii(shashum) (पृष्ठ 271)
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