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कब मेरा नशेमन अहल-ए-चमन गुलशन में गवारा करते हैं

क़मर जलालवी

कब मेरा नशेमन अहल-ए-चमन गुलशन में गवारा करते हैं

क़मर जलालवी

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    कब मेरा नशेमन अहल-ए-चमन गुलशन में गवारा करते हैं

    ग़ुंचे अपनी आवाज़ों में बिजली को पुकारा करते हैं

    अब नज़्अ' का आलम है मुझ पर तुम अपनी मोहब्बत वापस लो

    जब कश्ती डूबने लगती है तो बोझ उतारा करते हैं

    जाती हुई मय्यत देख के भी वल्लाह तुम उठ के सके

    दो चार क़दम तो दुश्मन भी तकलीफ़ गवारा करते हैं

    बे-वजह जाने क्यूँ ज़िद है उन को शब-ए-फ़ुर्क़त वालों से

    वो रात बढ़ा देने के लिए गेसू को सँवारा करते हैं

    पोंछो अरक़ रुख़्सारों से रंगीनी-ए-हुस्न को बढ़ने दो

    सुनते हैं कि शबनम के क़तरे फूलों को निखारा करते हैं

    कुछ हुस्न इश्क़ में फ़र्क़ नहीं है भी तो फ़क़त रुस्वाई का

    तुम हो कि गवारा कर सके हम हैं कि गवारा करते हैं

    तारों की बहारों में भी 'क़मर' तुम अफ़्सुर्दा से रहते हो

    फूलों को तो देखो काँटों में हँस हँस के गुज़ारा करते हैं

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    क़मर जलालवी

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    हबीब वली मोहम्मद

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