शायद जगह नसीब हो उस गुल के हार में
रोचक तथ्य
गियारवा शेर को बहादुर शाह ज़फर से जोड़ कर देखा जाता है जबकि ये सीमाब का शेर है जिसे उन्होंने अलीगढ़ के एक मुशायरे में भी पढ़ा था l 1947 में प्रकाशित उनकी किताब 'कलीम-ए-अजम' में भी ये शेर उल्लिखित है l
शायद जगह नसीब हो उस गुल के हार में
मैं फूल बन के आऊँगा अब की बहार में
कफ़्नाए बाग़बाँ मुझे फूलों के हार में
कुछ तो बुरा हो दिल मिरा अब की बहार में
गुंधवा के दिल को लाए हैं फूलों के हार में
ये हार उन को नज़्र करेंगे बहार में
निचला रहा न सोज़-ए-दरूँ इंतिज़ार में
इस आग ने सुरंग लगा दी मज़ार में
ख़ल्वत ख़याल-ए-यार से है इंतिज़ार में
आएँ फ़रिश्ते ले के इजाज़त मज़ार में
हम को तो जागना है तिरे इंतिज़ार में
आई हो जिस को नींद वो सोए मज़ार में
मैं दिल की क़द्र क्यूँ न करूँ हिज्र-ए-यार में
उन की सी शोख़ियाँ हैं इसी बे-क़रार में
'सीमाब' बे-तड़प सी तड़प हिज्र-ए-यार में
क्या बिजलियाँ भरी हैं दिल-ए-बे-क़रार में
थी ताब-ए-हुस्न शोख़ी-ए-तस्वीर-ए-यार में
बिजली चमक गई नज़र-ए-बे-क़रार में
बादल की ये गरज नहीं अब्र-ए-बहार में
बर्रा रहा है कोई शराबी ख़ुमार में
उम्र-ए-दराज़ माँग के लाई थी चार दिन
दो आरज़ू में कट गए दो इंतिज़ार में
तन्हा मिरे सताने को रह जाए क्यूँ ज़मीं
ऐ आसमान तू भी उतर आ मज़ार में
ख़ुद हुस्न ना-ख़ुदा-ए-मोहब्बत ख़ुदा-ए-दिल
क्या क्या लिए हैं मैं ने तिरे नाम प्यार में
मुझ को मिटा गई रविश-ए-शर्मगीं तिरी
में जज़्ब हो गया निगह-ए-शर्मसार में
अल्लाह-रे शाम-ए-ग़म मिरी बे-इख़्तियारियाँ
इक दिल है पास वो भी नहीं इख़्तियार में
ऐ अश्क-ए-गर्म मांद न पड़ जाए रौशनी
फिर तेल हो चुका है दिल-ए-दाग़-दार में
ये मो'जिज़ा है वहशत-ए-उर्यां-पसंद का
मैं कू-ए-यार में हूँ कफ़न है मज़ार में
ऐ दर्द दिल को छेड़ के फिर बार बार छेड़
है छेड़ का मज़ा ख़लिश-ए-बार-बार में
इफ़रात-ए-मा'सियत से फ़ज़ीलत मिली मुझे
मैं हूँ गुनाहगारों की पहली क़तार में
डरता हूँ ये तड़प के लहद को उलट न दे
हाथों से दिल दबाए हुए हूँ मज़ार में
तुम ने तो हाथ जौर-ओ-सितम से उठा लिया
अब क्या मज़ा रहा सितम-ए-रोज़गार में
क्या जाने रहमतों ने लिया किस तरह हिसाब
दो चार भी गुनाह न निकले शुमार में
ओ पर्दा-दार अब तो निकल आ कि हश्र है
दुनिया खड़ी हुई है तिरे इंतिज़ार में
रोई है सारी रात अँधेरे में बे-कसी
आँसू भरे हुए हैं चराग़-ए-मज़ार में
'सीमाब' फूल उगें लहद-ए-अंदलीब से
इतनी तो ज़िंदगी हो हवा-ए-बहार में
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