सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
रोचक तथ्य
इस ग़ज़ल की प्रसिद्धि राम प्रसाद बिस्मल के कारण भी है, हालाँकि शोधकर्ताओं ने इस तथ्य को उजागर करने का प्रयास किया है कि इस ग़ज़ल के ख़ालिक़ राम प्रसाद बिस्मल नहीं थे, बल्कि इसके ख़ालिक़ बिस्मल अज़ीमाबादी थे और ये ग़ज़ल उनके मजमुअ-ए -कलाम ‘हिकायत-ए-हस्ती’ में मौजूद है। कहा जाता है कि जब राम प्रसाद बिस्मल को फाँसी हुई तो उनकी ज़बान पर इस ग़ज़ल का मतला था।
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है
ऐ शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तिरे ऊपर निसार
ले तिरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है
वाए क़िस्मत पाँव की ऐ ज़ोफ़ कुछ चलती नहीं
कारवाँ अपना अभी तक पहली ही मंज़िल में है
रहरव-ए-राह-ए-मोहब्बत रह न जाना राह में
लज़्ज़त-ए-सहरा-नवर्दी दूरी-ए-मंज़िल में है
शौक़ से राह-ए-मोहब्बत की मुसीबत झेल ले
इक ख़ुशी का राज़ पिन्हाँ जादा-ए-मंज़िल में है
आज फिर मक़्तल में क़ातिल कह रहा है बार बार
आएँ वो शौक़-ए-शहादत जिन के जिन के दिल में है
मरने वालो आओ अब गर्दन कटाओ शौक़ से
ये ग़नीमत वक़्त है ख़ंजर कफ़-ए-क़ातिल में है
माने-ए-इज़हार तुम को है हया, हम को अदब
कुछ तुम्हारे दिल के अंदर कुछ हमारे दिल में है
मय-कदा सुनसान ख़ुम उल्टे पड़े हैं जाम चूर
सर-निगूँ बैठा है साक़ी जो तिरी महफ़िल में है
वक़्त आने दे दिखा देंगे तुझे ऐ आसमाँ
हम अभी से क्यूँ बताएँ क्या हमारे दिल में है
अब न अगले वलवले हैं और न वो अरमाँ की भीड़
सिर्फ़ मिट जाने की इक हसरत दिल-ए-'बिस्मिल' में है
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