काँच की ज़ंजीर टूटी तो सदा भी आएगी
काँच की ज़ंजीर टूटी तो सदा भी आएगी
और भरे बाज़ार में तुझ को हया भी आएगी
इत्र में कपड़े बसा कर मुतमइन है किस लिए
बा-वफ़ा हू जा कि यूँ बू-ए-वफ़ा भी आएगी
देख ले साहिल से जी भर के मचलती लहर को
इस तरफ़ कुछ देर में मौज-ए-फ़ना भी आएगी
दूधिया नाज़ुक गले में बाँध ले ता'वीज़ को
आज सुनता हूँ कि बस्ती में बला भी आएगी
रात के पिछले पहर दस्तक का रख लेना ख़याल
पत्ते खड़केंगे ज़रा आवाज़-ए-पा भी आएगी
उजली उजली ख़्वाहिशों पर नींद की चादर न डाल
याद के रौज़न से कुछ ताज़ा हवा भी आएगी
जा चुके सारे बगूले फ़िक्र की क्या बात है
खेत को सैराब करने अब घटा भी आएगी
दौर के लोगों को नज़रों में बसा कर देख ले
क़ुर्ब मिल जाएगा आँखों में जिला भी आएगी
शहर-ए-ना-पुरसाँ के मंज़र नक़्श कर ले ज़ेहन में
आँख रस्ते में कोई मंज़र गिरा भी आएगी
दिल की मस्जिद में कभी पढ़ ले तहज्जुद की नमाज़
फिर सहर के वक़्त होंटों पर दुआ भी आएगी
ज़िंदगी का ये मरज़ 'अफ़ज़ल' चला ही जाएगा
तेरे हाथों में कभी ख़ाक-ए-शिफ़ा भी आएगी
- पुस्तक : siip (Magzin) (पृष्ठ 235)
- रचनाकार : Nasiim Durraani
- प्रकाशन : Fikr-e-Nau (39 (Quarterly))
- संस्करण : 39 (Quarterly)
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