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सय्यद मोहम्मद अशरफ़

1957 | अलीगढ़, भारत

महत्वपूर्ण आधुनिक कहानीकारों में शामिल, अतीत से सम्बद्ध सांस्कृतिक परिदृश्य में नये अंदाज़ की कहानियाँ लिखने के लिए प्रसिद्ध. उर्दू में पहली बार जानवरों और ग़ैर जानदार वस्तुओं को केन्द्रीय पात्रों के रूप में प्रस्तुत किया.

महत्वपूर्ण आधुनिक कहानीकारों में शामिल, अतीत से सम्बद्ध सांस्कृतिक परिदृश्य में नये अंदाज़ की कहानियाँ लिखने के लिए प्रसिद्ध. उर्दू में पहली बार जानवरों और ग़ैर जानदार वस्तुओं को केन्द्रीय पात्रों के रूप में प्रस्तुत किया.

सय्यद मोहम्मद अशरफ़ की कहानियाँ

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आख़री मोड़ पर

स्वार्थ, हित, सामाजिक सुन्नता रिश्तों की मंदी इस कहानी का विषय है। एक बे-औलाद बूढ़े की जायदाद की वसीयत का बै'नामा कराने के लिए उसके तीन भतीजे और भतीजी ट्रेन से सफ़र करते हैं। चचा की दिली ख़्वाहिश है कि जब उनका देहांत हो तो उनको सम्मान पूर्वक उनके पूर्वजों के साथ दफ़्न कर दिया जाये। उसी प्रसंग में कई मुसाफ़िर जानवरों और परिंदों की दर्द-मंदी और दुख-दर्द में उनके आपसी मेल का ज़िक्र करते हैं लेकिन उन नौजवानों को इस तरह की कोई घटना याद नहीं आती। ट्रेन से उतर कर जब वो बस में सवार होने वाले होते हैं तो एक ट्रक एक शख़्स को रौंदता हुआ गुज़र जाता है। उस दुर्घटना का भी नौजवान ज़र्रा बराबर नोटिस नहीं लेते लेकिन बूढ़ा ब्रीफ़केस और कम्बल फ़र्श पर डाल कर बुरी तरह रोने लगता है।

अंधा ऊँट

आर्थिक स्तर पर अलगाव की वजह से पैदा होने वाली संवेदना की कहानी है। अकरम सुविधा संपन्न है और यूसुफ़ कमज़ोर। यूसुफ़ हमेशा अकरम के छोटे से छोटे काम की प्रशंसा करता है लेकिन अकरम हमेशा उसे हानि पहुँचाता है। आजीविका की तलाश दोनों को अलग कर देती है। एक लम्बे समय के बाद क्लर्क अकरम को जब उसकी राईटिंग पर टोका जाता है तो वो यूसुफ़ को याद करता है कि वो किस तरह उस की राईटिंग की तारीफ़ें किया करता था। दूसरी तरफ़ जब पहलवान यूसुफ़ को एक सैलानी अंग्रेज़ी से अज्ञानता का ताना देता और जाहिल कहता है तो वो अपने शिक्षित होने की सनद लेने गाँव लौट आता है। वो दोनों जब मिलते हैं तो अपनी व्यावहारिक जीवन की नाकामियों को साझा करते हैं। यूसुफ़ तो ख़ैर बचपन से दुख सहने का आदी था लेकिन अकरम को अब जो सदमा हुआ तो दोनों संवेदना और बेबसी की एक सतह पर आ गए। यूसुफ़ कहता है कि अंधा ऊँट मुझे पामाल कर रहा है और तुम्हें भी उसने रौंद दिया है। अंधा ऊँट इस कहानी में समय का रूपक है।

लकड़बग्घा चुप हो गया

यह कहानी इंसान के स्वार्थ की एक भयंकर दास्तान है। लकड़बग्घे को प्रतीक बना कर इंसान की कमीनगियों को व्यक्त किया गया है। बारिश में भीगता हुआ एक कमज़ोर और बेबस आदमी ट्रेन के मुसाफ़िरों से विनती करता है कि उसका भाई सख़्त बीमार है, वह उसके लिए ख़ून की बोतल ले जा रहा है, कोच का दरवाज़ा खोल कर उस पर रहम किया जाये। बड़ी उम्र के लोग तो दुविधा की स्थिति में रहते हैं लेकिन एक मासूम बच्चा हमदर्दी की भावना से प्रेरित हो कर दरवाज़ा खोल देता है। कुछ देर के बाद एक दूसरा व्यक्ति बिल्कुल उसी परेशानी की हालत में दरवाज़ा खोलने के लिए गिड़गिड़ाता है लेकिन पहले वाला व्यक्ति ख़ुद को कम्फ़र्ट ज़ोन में महसूस करता है और उसके गिड़गिड़ाने से उसके कान पर जूँ भी नहीं रेंगती। वो अपने कंधे से उसका हाथ हटा कर खिड़की का शीशा गिरा देता है। मासूम बच्चे को उस आदमी की शक्ल लकड़बग्घे जैसी मालूम होती है।

तूफ़ान

ये कहानी दम तोड़ती इंसानियत का नौहा है। तूफ़ान आने के बाद जहाँ एक तरफ़ सरकारी मदद की बंदरबाँट शुरू हो जाती है वहीं दूसरी तरफ़ ग़ैर-सरकारी संस्थाँए भी लाशों और अनाथ बच्चों का सहारा लेकर अपनी अपनी दुकान चमकाती हैं। आराधना एक सादा और दर्द-मंद दिल रखने वाली औरत है। वो एक ग़ैर सरकारी संस्था में सम्मिलित हो कर स्वेच्छा से पच्चास बच्चों की ज़िम्मेदारी अपने सर लेती है। वो अपनी प्रतिभा और मेहनत से सहारे अनाथ बच्चों के चेहरों पर मुस्कुराहट ले आती है। दान के लिए जब ग्रुप फ़ोटो खींचा जाता है तो सारे बच्चे मुस्कुराते हैं लेकिन इसी बात पर एक पदाधिकारी ग़ुस्सा हो जाता है कि ये बच्चे मुस्कुराए क्यों? अब कौन उसकी संस्था को दान देगा। वो बच्चों को डाँट कर दुबारा ग्रुप फ़ोटो बनवाता है जिसमें सारे बच्चे सहमे हुए खड़े होते हैं। फ़ोटो खिंचवाने के बाद एक बच्ची पूर्णिमा आराधना के पास आती है और मासूमियत से सवाल करती है कि आंटी अब हमें मुस्कुराना है या चुप रहना है?

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Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

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