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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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अशरफ़ यूसुफ़ी

अशआर 3

लकीरें खींच के मिट्टी पे बैठ जाता हूँ

यहाँ मकाँ था ये बाज़ार ये गली उस की

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एक तस्वीर हूँ ग़म की जिस पर

मुस्कुराने का गुमाँ होता है

हवा के लम्स में उस की महक भी होती है

वो शाख़-ए-गुल जो कहीं रू-ब-रू नहीं होती

 

ग़ज़ल 12

पुस्तकें 3

 

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