मिर्ज़ा ग़ालिब की हशमत ख़ाँ के घर दावत
स्टोरीलाइन
यह कहानी उर्दू के महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब के एक डोमिनी के साथ इश्क़़ की दास्तान को बयान करती है। मिर्ज़ा ग़ालिब के दोस्त हशमत ख़ाँ अपने यहाँ एक दावत रखते हैं। इस दावत में वह मिर्ज़ा ग़ालिब को भी बुलाते हैं। दावत की रंगीनी के लिए मिर्ज़ा ग़ालिब की प्रेमिका डोमिनी के मुजरे का इंतिज़ाम किया जाता है। मुजरे के दौरान हशमत ख़ाँ कुछ ऐसी हरकतें करते हैं कि डोमिनी मिर्ज़ा ग़ालिब से सरे-आम अपने इश्क़़ का इज़्हार कर देतीं हैं।
जब हशमत ख़ां को मालूम होगया कि चौदहवीं (डोमनी) उसके बजाय मिर्ज़ा ग़ालिब की मुहब्बत का दम भरती है। हालाँकि वो उसकी माँ को हर महीने काफ़ी रुपये देता है और क़रीब क़रीब तय हो चुका है कि उसकी मिस्सी की रस्म बहुत जल्द बड़े एहतमाम से अदा कर दी जाएगी, तो उसको बड़ा ताव आया। उस ने सोचा कि मिर्ज़ा नौशा को किसी न किसी तरह ज़लील किया जाये। चुनांचे एक दिन मिर्ज़ा को रात को अपने यहां मदऊ किया।
मिर्ज़ा ग़ालिब वक़्त के बड़े पाबंद थे। जब हशमत ख़ां के हाँ पहुंचे तो देखा कि गिनती के चंद आदमी छोलदारी के नीचे शम्मों की रोशनी में बैठे हैं... गाव तकिए लगे हैं। उगालदान जा-ब-जा क़ालीनों पर मौजूद पड़े हैं।
ग़ालिब आए, ता’ज़ीमन सब उठ खड़े हुए और उनसे मुआ’नक़ा किया और हशमत ख़ां से मुख़ातिब हुए, “हाएं, ख़ां साहब, यहां तो सन्नाटा पड़ा है… अभी कोई नहीं आया?”
हशमत ख़ां मुस्कुराया, “यूं क्यों नहीं कहते के अंधेरा पड़ा है… चौदहवीं आए तो अभी चांदनी छिटक जाये।”
मिर्ज़ा ग़ालिब ने ये चोट बड़े तहम्मुल से बर्दाश्त की। “सच तो यूं है कि आपके घर में चौदहवीं के दम से रोशनी है… हतकड़ियों की झनकार और आपकी तेज़ रफ़्तार के सिवा धरा ही क्या है?”
हशमत ख़ां खिसयाना सा होगया, उसको कोई जवाब न सूझा। इतने में दो तीन अस्हाब अंदर दाख़िल हुए जिनको हशमत ख़ां ने मदऊ किया था, “आगे आईए जनाब जमील अहमद ख़ां साहिब, आईए और भई सुरूर ख़ां, तुमने भी हद कर दी।”
हशमत ख़ां के इन मेहमानों ने जो उसके दोस्त थे, मौज़ूं-ओ-मुनासिब अलफ़ाज़ में मा’ज़रत चाही और चांदनी पर बैठ गए।
हशमत ख़ां ने अपने मुलाज़िम को अपनी गरजदार आवाज़ में बुलाया, “मुन्ने ख़ां!”
मुन्ने ख़ां भागता हुआ आया, “जी सरकार,हुक्म।”
“बी चौदहवीं अभी तक नहीं आईं, क्या वजह?”
मुन्ने ख़ां ने अ’र्ज़ की, “जी हुज़ूर, बहुत देर से आई हैं, लाल कमरे में बैठी हैं... सारे समाजी हाज़िर हैं, क्या हुक्म है?”
हशमत ख़ां तश्तरी में से पान का चांदी और सोने के वरक़ लगा हुआ बीड़ा उठाया और अपने नौकर को दिया, “लो ये बीड़ा दे दो... महफ़िल में आजाऐं, गाना और नाच शुरू हो।”
मुन्ने ख़ां लाल कमरे में गया। चौदहवीं, चूड़ीदार पाएजामा पहने दोनों टखनों पर घुंघरू बांधे तैयार बैठी थी। उसने उस सांवली सलोनी जवानी को बीड़ा दिया। चौदहवीं ने उसे लेकर एक तरफ़ रख दिया। उठी, दोनों पांव फ़र्श पर मार कर घुंघरुओं की नशिस्त देखी और समाजियों से कहा, “तुम लोग चलो और लहरा बजाना शुरू करो... मैं आई।”
समाजियों ने हाज़िरीन को फ़र्शी सलाम किया और एक तरफ़ बैठ गए। तबला सारंगी से मिलने लगा, लहरा बजना शुरू हुआ ही था कि चौदहवीं, लाल कमरे ही से नाचती थिरकती महफ़िल में आई। कोरनिश बजा ला कर एक छनाके के साथ नाचने लगी।
जमील अहमद ने एक तोड़े पर बे-इख़्तियार हो कर कहा, “बी चौदहवीं, क्या क्या नाच के अंगों में भाव लजाओ बता रही हो।” चौदहवीं ने जो कि एक नया तोड़ा ले रही थी, उसे ख़त्म करके तस्लीम बजा लाते हुए कहा, “हुज़ूर, आप रईस लोग क़दरदानी फ़रमाते हैं वर्ना मैं नाचना क्या जानूं।”
सुरूर ख़ां बहुत मसरूर थे, कहा, “सच तो ये है, बी चौदहवीं तुम नाचती हो तो मालूम होता है फुलझड़ी फूट रही है।”
जमील अहमद सुरूर ख़ां से मुख़ातिब हुए, “अमां गुलरेज़ नहीं कहते।”
फिर उन्होंने ग़ालिब की तरफ़ देखा, “क्यों मिर्ज़ा नौशा... सही अ’र्ज़ कर रहा हूँ न?”
ग़ालिब ने थोड़े तवक्कुफ़ के बाद चौदहवीं की तरफ़ कनखियों से देखा, “मैं तो न फुलझड़ी कहूंगा और न गुलरेज़, बल्कि यूं कहूंगा कि मालूम होता है महताब फूट रही है।”
जमील अहमद बोले, “वाह वाह, क्यों न हो। शायर हैं न शायर, चौदहवीं का नाच और महताब, न फुलझड़ी न गुलरेज़... सुबहान अल्लाह, सुबहान अल्लाह!”
हशमत ख़ां ने अपनी मख़सूस गरजदार आवाज़ में कहा, “एक तो यूं इन बी साहिबा का दिमाग़ चौथे आसमान पर है, आप लोग और सातवें आसमान पर पहुंचा रहे हैं।”
चौदहवीं नाचते नाचते एक अदा से हशमत ख़ां को कहती है, “जी हाँ, आपको तो बस कीड़े डालने आते हैं।”
हशमत ख़ां मुस्कुराता है और अपने दोस्तों की तरफ़ देखता है, “अच्छा हज़रात सुनिए, चौदहवीं जिस वक़्त नाचती है, मालूम देता है पानी पर मछली तैर रही है।” फिर चौदहवीं से मुख़ातिब होता है, “ले अब ख़ुश हुईं।”
चौदहवीं नाचना बंद कर देती है और नन्ही सी नाक चढ़ा कर कहती है, “दिमाग़ कहाँ पहुंचा है। सड़ी बदबूदार मछली… दूर पार… नौज मैं क्या मछली हूँ?”
महफ़िल में फ़र्माइशी क़हक़हे लगते हैं। हशमत ख़ां को चौदहवीं का जवाब नागवार मालूम होता है... मगर चौदहवीं उसके बिगड़े हुए तेवरों की कोई परवाह नहीं करती और ग़ालिब को मुहब्बत की नज़र से देख कर उनकी ये ग़ज़ल बड़े जज़्बे के साथ गाना शुरू कर देती है;
ये जो हम हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
कभी सबा को कभी नामाबर को देखते हैं!
वो आएं घर में हमारे ख़ुदा की क़ुदरत है
कभी उनको कभी अपने घर को देखते हैं!
चौदहवीं ये ग़ज़ल ग़ालिब की तरफ़ रुख़ करके गाती है और कभी कभी मुस्कुरा देती है, ग़ालिब भी मुतबस्सिम हो जाते हैं। हशमत ख़ां जल भुन जाता है और चौदहवीं से बड़े कड़े लहजे में कहता है, “अरे हटाओ, ये ग़ज़लें-वज़लें, कोई ठुमरी-दादरा गाओ।”
चौदहवीं ग़ज़ल गाना बंद कर देती है। मिर्ज़ा ग़ालिब की तरफ़ थोड़ी देर टकटकी बांध कर देखती है और ये ठुमरी अलापना शुरू करती है;
पिया बिन नाहीं चैन
हशमत ख़ां के सारे मंसूबे ख़ाक में मिले जा रहे थे। अपनी करख़्त आवाज़ में जान मुहम्मद को बुलाता और उससे कहता है, “वो मेरा सन्दूक़चा लाना।”
जान मुहम्मद बड़े अदब से दरयाफ़्त करता है, “कौन सा सन्दूक़चा हुज़ूर?”
“अरे वही, जिसमें कल मैंने तुम्हारे सामने कुछ ज़ेवरात ला के रखे हैं।”
गाना जारी रहता है... इस दौरान में जान मुहम्मद सन्दूक़चा ला कर हशमत ख़ां के सामने रख देता है। वो ग़ालिब को जो चौदहवीं का गाना सुनने में महव है, एक नज़र देख कर मुस्कुराता है। सन्दूक़चा खोल कर एक जड़ाऊ गुलूबंद निकाल कर चौदहवीं से मुख़ातिब होता है, “चौदहवीं, इधर देखो, ये गुलोबंद किसका है?”
चौदहवीं एक अदा के साथ जवाब देती है, “मेरा।”
हशमत ख़ां, ग़ालिब की तरफ़ मा’नी ख़ेज़ नज़रों से देखता है और सन्दूक़चे से जड़ाऊ झाले निकाल कर चौदहवीं से पूछता है, “अच्छा ये झाले किसके!”
फिर वही अदा, पर अब जो तसन्नो इख़्तियार कर रही थी, “मेरे!”
हाज़िरीन ये तमाशा देख रहे थे, जिनमें मिर्ज़ा ग़ालिब भी शामिल थे। सब हैरान थे कि ये हो क्या रहा है?
हशमत ख़ां अब की कड़े निकालता है, “चौदहवीं ये कड़ों की जोड़ी किसकी है?”
चौदहवीं की अदा बिल्कुल बनावट में गई, “मेरी!”
अब हशमत ख़ां बड़ी ख़ुद ए’तिमादी से उससे सवाल करता है, “अच्छा, अब ये बताओ, चौदहवीं किसकी?”
चौदहवीं तवक्कुफ़ के बाद ज़रा आंचल की आड़ लेकर देखती है, “आप की।”
ग़ालिब ख़ामोश रहते हैं लेकिन हशमत ख़ां जो शायद चौदहवीं के आंचल की ओट का जवाब समझ नहीं सका था, मिर्ज़ा से कहा, “आप भी गवाह रहिएगा।”
ग़ालिब ने ज़रा तीखेपन से जवाब दिया, “साज़िशी मुक़द्दमे में गवाही मुझसे दिलवाते हो।”
“तुमने नहीं सुना?”
मिर्ज़ा ग़ालिब महफ़िल से उठ कर जाते हुए हशमत ख़ां से कहते हैं, “कुछ देखा न कुछ सुना, और दूसरे मुझी से मुक़द्दमा और मुझी से गवाही... ग़ज़ब, अंधेर!”
ग़ालिब के जाने के बाद महफ़िल दरहम बरहम हो जाती है। चौदहवीं से हशमत ख़ां गाना जारी रखने के लिए कहता है... सिर्फ़ हुक्म की ता’मील के लिए वो गाती है, मगर उखड़े हुए सुरों में।
हशमत ख़ां दिली तौर पर महसूस करता है कि वो शिकस्त ख़ूर्दा है... आज का मैदान ग़ालिब मार गए।
दूसरे रोज़ सुबह ग़ालिब का भेजा हुआ आदमी मदारी, चौदहवीं के घर पहुंचता है और चौदहवीं से मिलता है। वो उसको पहचानती थी, इसलिए बहुत ख़ुश होती है और उससे पूछती है, “क्यों मियां मरधे, कहाँ से आए हो?”
“जी हबश ख़ां के फाटक से आया हूँ... नवाब मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ां साहिब ने भेजा है।”
चौदहवीं का दिल धड़कने लगा, “क्यों क्या बात है?”
“जी, उन्होंने ये तोरा भेजा है।” ये कह कर मदारी एक तोरा चौदहवीं को देता है, जिसे वो जल्दी जल्दी बड़े इश्तियाक़ से खोलती है। उसमें से ज़ेवरात निकलते हैं।
मदारी उससे कहता है, “बीबी जी, गिन के सँभाल लीजिए और एक बात जो नवाब साहब ने कही है, वो सुन लीजिए।”
“क्या कहा?”
मदारी थोड़ी हिचकिचाहट के बाद ज़बान खोलता है, “उन्होंने कहा था... अपने रईस जमादार हशमत ख़ां से कहना कि जिन मुक़द्दमों का फ़ैसला रुपया पैसा चढ़ा कर बड़ी आसानी से अपने हक़ में हो जाये, उन पर गवाहों की ज़रूरत नहीं हुआ करती।”
चौदहवीं गुज़श्ता रात के वाक़ियात की रोशनी में मिर्ज़ा नौशा की इस बात को फ़ौरन समझ जाती है और दाँतों से अपनी मख़रूती उंगलियों के नाख़ुन काटना शुरू कर देती है और सख़्त परेशान हो कर कहती है, “वही हुआ, जो मैं समझती थी। मियां मरधे, तुम ज़रा ठहरो तो मैं तुम से कुछ कहूं।”
मदारी चंद लम्हात सोचता है, “लेकिन बीबी जी नवाब साहब ने फ़रमाया था कि देखो मदारी, ये तोरा दे आना... वापस न लाना और फ़ौरन चले आना।”
चौदहवीं और ज़्यादा मुज़्तरिब हो जाती है, “ज़रा दम भर ठहरो... सुनो, उनसे कहना... मैं क्यों कर... हाँ ये कहना कि मेरी समझ में कुछ भी नहीं आता, लेकिन सुना तुमने... कहना मैं मजबूरी से कह गई... नहीं नहीं मरधे बाबा कहना, हाँ क्या? बस यही कि मेरा क़ुसूर कुछ नहीं।”
ये कहते कहते उस की आँखों में आँसू आजाते हैं, “लेकिन सुना मियां मदारी, तुम इतना ज़रूर कहना कि आप ख़ुद तशरीफ़ लाएं, तो मैं अपने दिल का हाल कहूं। अच्छा यूं कहना... ज़बानी अ’र्ज़ करूंगी... हाय और क्या कहूं, सुनो मेरा हाथ जोड़ कर सलाम कहना।”
मदारी अच्छा अच्छा कहता चला जाता है, लेकिन चौदहवीं उसे आँसू भरी आँखों से सीढ़ियों के पास ही रोक लेती है, “ए मियां मरधे... ए मियां मदारी,. कहना मेरी जान की क़सम ज़रूर आईएगा... कहना मेरा मुर्दा देखिए... चौदहवीं बदनसीब को अपने हाथ से गाड़िए जो न आईए, देखो ज़रूर सब कुछ कहना।”
मदारी चला जाता है। वो रोती रोती बैठक में आती है और गाव तकिए पर गिर कर आँसू बहाने लगती है। थोड़ी देर के बाद जमादार हशमत ख़ां आता है और मा’नी ख़ेज़ नज़रों से उसको देखता है... चौदहवीं को उसकी आमद का कुछ एहसास नहीं होता, इसलिए वो ग़म-ओ-अंदोह के एक अथाह समुंदर में थपेड़े खा रही थी। हशमत ख़ां उसके पास ही मस्नद पर बैठ जाता है, फिर भी चौदहवीं को उसकी मौजूदगी का कुछ पता नहीं चलता। बेखु़दी के आलम में वो उसकी तरफ़ बिल्कुल ख़ाली नज़रों से देखती है और बड़बड़ाती है, “जाने वो उनसे सब बातें कहेगा भी या नहीं।”
हशमत ख़ां जो उसके पास ही बैठा था, करख़्त आवाज़ में बोला, “मेरी जान, मुझसे कही होतीं तो एक एक तुम्हारे मिर्ज़ा नौशा तक पहुंचा देता।”
चौदहवीं चौंक पड़ती है, जैसे उसको ख़्वाबों की दुनिया में किसी ने एक दम झिंझोड़ कर जगा दिया... उसकी आँसू भरी आँखें धुंदली हो रही थीं, उसे सिर्फ़ स्याह नोकीली मूंछें दिखाई दीं, जिनका एक एक बाल उसके दिल में तकलों की तरह चुभता गया। आख़िर उसे कोई होश न रहा, वो समझता था कि ये भी एक चलित्तर है जो आमतौर पर तवाइफ़ों और डोमनियों से मंसूब है... वो ज़ोर ज़ोर से क़हक़हे लगाता रहा और डोमनी बेहोशी के आलम में मिर्ज़ा नौशा की ख़ातिर मदारात में फ़ौरन मशग़ूल हो गई थी। इसलिए कि वो उसके बुलाने पर आ गए थे।
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