खुदकुशी का इक़दाम
स्टोरीलाइन
"कहानी मुल्क की आर्थिक और क़ानूनी स्थिति की दुर्दशा पर आधारित है। इक़बाल भूखमरी और ग़रीबी से तंग आकर ख़ुदकुशी की कोशिश करता है जिसकी वजह से उसे क़ैद-ए-बा-मशक़्क़त की सज़ा सुनाई जाती है। अदालत में वो तंज़िया अंदाज़ में कहता है कि सिर्फ़ इतनी सज़ा? मुझे तो ज़िंदगी से निजात चाहिए। इस मुल्क ने ग़रीबी ख़त्म करने का कोई रास्ता नहीं निकाला तो ताज़ीरात में मेरे लिए क्या क़ानून होगा?"
इक़बाल के ख़िलाफ़ ये इल्ज़ाम था कि उसने अपनी जान को अपने हाथों हलाक करने की कोशिश की, गो वो इसमें नाकाम रहा। जब वो अदालत में पहली मर्तबा पेश किया गया तो उसका चेहरा हल्दी की तरह ज़र्द था। ऐसा मालूम होता था कि मौत से मुडभेड़ होते वक़्त उसकी रगों में तमाम ख़ून ख़ुश्क हो कर रह गया है जिसकी वजह से उसकी तमाम ताक़त सल्ब हो गई है।
इक़बाल की उम्र बीस-बाईस बरस के क़रीब होगी मगर मुरझाए हुए चेहरे पर खूंडी हुई ज़र्दी ने उसकी उम्र में दस साल का इज़ाफ़ा कर दिया था और जब वो अपनी कमर के पीछे हाथ रखता तो ऐसा मालूम होता कि वो वाक़ई बूढ़ा है। सुना गया है कि जब शबाब के ऐवान में ग़ुर्बत दाख़िल होती है तो ताज़गी भाग जाया करती है। उसके फटे पुराने और मैले कुचैले कपड़ों से ये अयाँ था कि वो ग़ुर्बत का शिकार है और ग़ालिबन हद से बढ़ी हुई मुफ़लिसी ही ने उसे अपनी प्यारी जान को हलाक करने पर मजबूर किया था।
उसका क़द काफ़ी लंबा था जो काँधों पर ज़रा आगे की तरफ़ झुका हुआ था। इस झुकाओ में उसके वज़नी सर को भी दख़ल था जिस पर सख़्त और मोटे बाल, जेलख़ाने के स्याह और खुरदरे कम्बल का नमूना पेश कर रहे थे। आँखें अंदर को धंसी हुई थीं जो बहुत गहरी और अथाह मालूम होती थीं।
झुकी हुई निगाहों से ये पता चलता था कि वो अदालत के संगीन फ़र्श की मौजूदगी को ग़ैर यक़ीनी समझ रहा है और ये मानने से इनकार कर रहा है कि वो ज़िंदा है। नाक पतली और तीखी, उसके माथे पर थोड़ा सा चिकना मैल जमा हुआ था जिसको देख कर ज़ंग-आलूद तलवार का तसव्वुर आँखों में फिर जाता था। पतले पतले होंट जो किनारों पर एक लकीर बन कर रह गए थे, आपस में सिले हुए मालूम होते थे। शायद उसने उनको इसलिए भींच रखा था कि वो अपने सीने की आग और धुएं को बाहर निकालना नहीं चाहता था।
मैले पाइजामे में उसकी सूखी हुई टांगें ऊपर के धड़ के साथ इस तरह जुड़ी हुई थीं कि मालूम होता था दो ख़ुश्क लकड़ियां तनूर के मुँह में ठुँसी हुई हैं। सीना चौड़ा चकला था मगर हड्डियों के ढाँचे पर जिसकी पस्लियां फटे हुए गिरेबान में से झांक रही थीं, गोश्त साँवले रंग की झिल्ली मालूम होता था। सांस की आमद-ओ-शुद से ये झिल्ली बार बार फूलती और दबती थी।
पैरों में कपड़े का जापानी जूता था जो जगह जगह से बेहद मैला होरहा था। दोनों जूते अंगूठों के मुक़ाम पर से फटे हुए थे। उन सुराखों में से उस के अंगूठों के बढ़े हुए नाख़ुन नुमायां तौर पर नज़र आरहे थे वो कोट पहने हुए था जो उसके बदन पर बहुत ढीला था। उस मैले और साल ख़ूर्दा कोट की ख़ाली फटी हुई जेबें बेजान मर्दों की तरह मुँह खोले हुए थीं।
वो कटहरे के डंडे पर हाथ रखे और सर झुकाए जज के सामने बिल्कुल ख़ामोश और बेहिस-ओ-हरकत खड़ा था।
“तुम ने 20 जून को हफ़्ते के दिन माना निवाला स्टेशन के क़रीब रेल की पटड़ी पर लेट कर अपनी जान हलाक करने की कोशिश की और इस तरह एक शदीद जुर्म के मुर्तकिब हुए। जज ने ज़िमनी काग़ज़ात पढ़ते हुए कहा, “बताओ ये जुर्म जो तुम पर आ’इद किया गया है कहाँ तक दुरुस्त है?”
“जुर्म!” इक़बाल अपने गहरे ख़्वाब से गोया चौंक सा पड़ा लेकिन फ़ौरन ही उसका वज़नी सर जो एक लम्हे के लिए उठा था फिर बेल की पतली टहनी के बोझल फल की तरह लटक गया।
“बताओ ये जुर्म जो तुम पर आ’इद किया गया है कहाँ तक दुरुस्त है?” जज ने स्कूल के उस्ताद की तरह वही सवाल दोहराया जो वो इससे पहले हज़ारहा लोगों से पूछ चुका था।
इक़बाल ने अपना सर उठाया और जज की तरफ़ अपनी बेहिस आँखों से देखना शुरू कर दिया फिर थोड़ी देर के बाद धीमे लहजे में कहा, “मैंने आज तक किसी जुर्म का इर्तिकाब नहीं किया”
अदालत के कमरे में कामिल सुकूत तारी था, शायद इसका बाइ’स इक़बाल का दश्तनुमा सरापा था जिसमें बला की हैबत थी, जज उसकी निगाहों के ख़ौफ़नाक ख़ला से ख़ौफ़ खा रहा था। कोर्ट इंस्पेक्टर ने जो जंगले से बाहर बुलंद कुर्सी पर बैठा था, कमरे के सुकूत के दहशतनाक असर को दूर करने के लिए यूं ही दो-तीन मर्तबा अपना गला साफ़ किया, रीडर ने जो प्लेटफार्म पर बिछे हुए तख़्त पर जो जज के क़रीब बैठा था मिसलों के काग़ज़ात इधर उधर रखते हुए अपनी परेशानी और डर दूर करने की सई की।
जज ने रीडर की तरफ़ मा’नी ख़ेज़ नज़रों से देखा और रीडर ने कोर्ट इंस्पेक्टर की तरफ़ और कोर्ट इंस्पेक्टर जवाब में अपना हलक़ साफ़ करने के लिए दो मर्तबा खांसा। जब कमरे का ख़ौफ़ आमेज़ सुकूत टूटा तो जज ने मेज़ पर कुहनियाँ टेक कर सामने पड़े हुए क़लमदान के एक ख़ाने में से लोहे की चमकती हुई पिन निकाल कर अपने दाँतों की रेख़ में गाड़ते हुए इक़बाल से कहा,“क्या तुमने ख़ुदकुशी का इक़दाम किया था?”
“जी हाँ!” ये जवाब इक़बाल ने ऐसे लहजे में दिया कि उसकी आवाज़ एक लर्ज़ां सरगोशी मालूम हुई।
जज ने फ़ौरन ही कहा, “तो फिर अपने जुर्म का इक़बाल करते हो?”
“जुर्म!” वो फिर चौंक पड़ा और तेज़ लहजे में बोला, “आप किस जुर्म का ज़िक्र कर रहे हैं? अगर कोई ख़ुदा है तो वो अच्छी तरह जानता है कि मैं हमेशा इससे पाक रहा हूँ।”
जज ने अपने लबों पर ज़ोर दे कर एक बीमार मुस्कुराहट पैदा की, “तुमने ख़ुदकुशी का इक़दाम किया और ये जुर्म है। अपनी या किसी ग़ैर की जान लेने में कोई फ़र्क़ नहीं। हर सूरत में वार इंसान पर होता है।”।
इक़बाल ने जवाब दिया इस जुर्म की सज़ा क्या है? ये कहते हुए उसके पतले होंटों पर एक तंज़िया तबस्सुम नाच रहा था और ऐसा मालूम होता था कि सान पर चाक़ू की धार तेज़ करते वक़्त चिंगारियों की फ़ुवार गिर रही है। जज ने जल्दी से कहा, “एक, दो या तीन माह की क़ैद...”
इक़बाल ने यही लफ़्ज़ तौल तौल कर दुहराए, गोया वो अपने पिस्तौल के मैगज़ीन की तमाम गोलीयों को बड़े इत्मिनान से एक निशाने पर ख़ाली करना चाहता है, “एक, दो या तीन माह की क़ैद!”
ये लफ़्ज़ दोहराने के बाद वो एक लम्हा ख़ामोश रहने के बाद तेज़-ओ-तुंद लहजे में बोला, “आपका क़ानून सरीहन मौत को तवील बनाना चाहता है। एक आदमी जो चंद लम्हात के अंदर अपनी दुख भरी ज़िंदगी को मौत के सुकून में तबदील कर सकता है, आप उसे मजबूर करते हैं वो कुछ अ’र्से तक और दुख के तल्ख़ जाम पीता रहे। जो आसमान से गिरता है आप उसे खजूर पर लटका देते हैं, आग से निकाल कर कड़ाही में डालना चाहते हैं। क्या क़ानून इसी सितम ज़रीफ़ी का नाम है?”
जज ने बारोब लहजे में जवाब दिया, “अदालत इन फ़ुज़ूल सवालात का जवाब नहीं दे सकती”
अदालत इन फ़ुज़ूल सवालात का जवाब नहीं दे सकती, तो बताईए वो किन मतीन और संजीदा सवालों का जवाब दे सकती है?” इक़बाल के माथे पर पसीने के सर्द क़तरे लरज़ने लगे, “क्या अदालत बता सकती है कि अदालत के मा’नी क्या हैं? क्या अदालत बता सकती है के जजों और मस्जिद के मुल्लाओं में क्या फ़र्क़ है जो मरने वालों के सिरहाने रटी हुई सूरा यासीन की तिलावत करते हैं? क्या अदालत बता सकती है कि उसके क़वानीन और मिट्टी के खिलौनों में क्या फ़र्क़ है?... अदालत अगर फन फ़ुज़ूल सवालों का जवाब नहीं दे सकती तो उससे कहिए कि वो इन मा’क़ूल सवालों का जवाब दे? ”
जज के तेवरों पर ख़फ़गी के आसार नमूदार हुए और उसने तेज़ी से कहा, “इस क़िस्म की बेबाकाना गुफ़्तुगू अदालत की तौहीन है जो एक संगीन जुर्म है।”
इक़बाल ने कहा, “तो गुफ़्तुगू का कोई ऐसा अंदाज़ बताईए जिससे आपकी नेक चलन अदालत की तौहीन न हो।”
जज ने झल्ला कर जवाब दिया, “जो सवाल तुमसे किया जाये सिर्फ़ उसी का जवाब दो, अदालत तुम्हारी तक़रीर सुनना नहीं चाहती।”
“पूछिए! आप मुझसे क्या पूछना चाहते हैं?” इक़बाल के चेहरे पर यास की धुन्द छा रही थी और उस की आवाज़ उस गजर की डूबती हुई गूंज मालूम होती थी जो रात की तारीकियों में लोगों को वक़्त से बाख़बर रखता है।
ये सवाल कुछ इस अंदाज़ से किया गया था कि जज के चेहरे पर घबराहट सी पैदा हो गई और उस ने ऐसे ही मेज़ पर से काग़ज़ात उठाए और फिर वहीं के वहीं रख दिए और दाँत की रेख़ में से पिन निकाल कर पिन कुशन में गाड़ते हुए कहा, “तुमने अपनी जान लेने की कोशिश की इसलिए तुम अज़ रू-ए-क़ानून मुस्तोजिब-ए-सज़ा हो। क्या अपनी सफ़ाई में तुम कोई बयान देना चाहते हो?”
इक़बाल के बेजान और नीले होंट फ़र्त-ए-हैरत से खुले के खुले रह गए। उसने कहा, “बयान! आप किस क़िस्म का बयान लेना चाहते हैं? क्या मैं सरापा बयान नहीं हूँ? ...क्या मेरे गालों की उभरी हुई हड्डियां ये बयान नहीं दे रहीं कि ग़ुर्बत की दीमक मेरे गोश्त को चाटती रही है? क्या मेरी बेनूर आँखें ये बयान नहीं दे रहीं कि मेरी ज़िंदगी की बेशतर रातें लकड़ी और तेल के धुएं के अंदर गुज़री हैं? क्या मेरा सूखा हुआ जिस्म ये बयान नहीं दे रहा कि इसने कड़े से कड़ा दुख बर्दाश्त किया है? क्या मेरी ज़र्द बेजान और काँपती हुई उंगलियां ये बयान नहीं दे रहीं कि वो साज़-ए-हयात के तारों में उम्मीद अफ़्ज़ा नग़मा पैदा करने में नाकाम रही हैं?
बयान!... बयान!... सफ़ाई का बयान! किस सफ़ाई का बयान? मैं अपने हाथों से अपनी ज़िंदगी का ख़ातमा कर रहा था इसलिए कि मुझे जीने की ख़्वाहिश न थी और जिसे जीने की ख़्वाहिश न हो जो हर जीने वाले को तअ’ज्जुब से देखता हो क्या आप उससे ये चाहते हैं कि वो इस संगीन इमारत में आकर दो-तीन बरस की क़ैद से बचने के लिए झूट बोले? जज साहब आप उससे बात कर रहे हैं जिसकी ज़िंदगी क़ैद से बदतर रही है!”
जज पर ज़र्द-रू इक़बाल की बेजोड़ जज़्बाती गुफ़्तुगू कुछ असर न कर सकी और चार-पाँच पेशियों की यक आहंग समाअ’त के बाद उसे दो माह क़ैद-ए-महज़ का हुक्म सुना दिया गया। सज़ा का हुक्म मुजरिम ने बड़े इत्मिनान से सुना लेकिन यकायक उसके उस्तख़वानी चेहरे पर ज़हरीली तंज़ के आसार नुमूदार हुए और उसके बारीक होंटों के सिरे भिंच गए, मुस्कुराते हुए उसने जज को मुख़ातिब कर के कहा,
“आप ने मुक़द्दमे की तमाम कार्रवाई में बहुत मेहनत की है जिसके लिए मैं आपका शुक्र गुज़ार हूँ। मुक़द्दमे की रुएदाद को आपने जिस नफ़ासत से इन लंबे लंबे काग़ज़ों पर अपने हाथों से टाइप किया है वो भी दाद के क़ाबिल है और आपने बात बात में ता’ज़ीरात की भारी भरकम किताब से दफ़आ’त का हवाला जिस फुर्ती से दिया है, उससे आप के हाफ़िज़े की ख़ूबी का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। क़ानून जहां तक मैंने अंदाज़ा किया है एक पर्दा नशीन ख़ातून है जिसकी इस्मत के तहफ़्फ़ुज़ के लिए आप लोग मुक़र्रर किए गए हैं और मुझे ए’तराफ़ है कि आपने अपने फ़राइज़ की अंजाम दही में कोई दक़ीक़ा फ़रौगुज़ाश्त नहीं किया, मगर मुझे अफ़सोस है कि आप एक ऐसी औरत की हिफ़ाज़त कर रहे हैं जिसे हर चालाक आदमी अपनी दाश्ता बना कर रख सकता है।”
“ये लफ़्ज़ अदालत की तौहीन ख़याल किए गए और इस जुर्म के इर्तिकाब में इक़बाल की ज़िन्दानी में दो माह और बढ़ा दिए गए। ये हुक्म सुन कर इक़बाल के पतले होंटों पर फिर मुस्कुराहट पैदा हुई।
इक़बाल ने जेर-ए-लब कहा, “पहले दो माह थे, अब चार होगए।” और फिर जज से मुख़ातिब हो कर पूछा, “आपको ता’ज़ीरात-ए-हिंद के तमाम दफ़आ’त अज़ बर याद हैं। क्या आप मुझे कोई इसी तौहीन की क़िस्म का बेज़रर जुर्म बता सकते हैं, जिसके इर्तिकाब से आपकी अदालत मेरी गर्दन जल्लाद के हवाले कर सके। मैं इस दुनिया में ज़िंदा नहीं रहना चाहता। जहां ग़रीबों को जीने के लिए हवा के चंद पाकीज़ा झोंके भी नसीब नहीं होते और जिसके बनाए क़ानून मेरी समझ से बालातर हैं। क्या आपका ये क़ानून अ’जीब-ओ-ग़रीब नहीं जिसने इस बात की तहक़ीक़ किए बग़ैर कि मैंने ख़ुदकुशी का इक़दाम क्यों किया, मुझे जेल में ठूंस दिया है? मगर ऐसे सवाल पूछने से फ़ायदा ही क्या। ता’ज़ीरात-ए-हिंद में ग़ालिबन इनका कोई जवाब नहीं।”
इक़बाल ने अपने थके हुए मुर्दा काँधों को एक जुंबिश दी और ख़ामोश हो गया।
अदालत ने उसके सवाल का कोई जवाब न दिया।
- पुस्तक : منٹو نوادرات
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