हसन अख्तर जलील
ग़ज़ल 16
नज़्म 1
अशआर 4
मैं न दरिया हूँ न साहिल न सफ़ीना न भँवर
दावर-ए-ग़म किसी साँचे में तो ढाले मुझ को
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मुझ को 'जलील' कौन कहेगा शिकस्ता-दिल
खाया था एक ज़ख़्म सो वो बे-निशाँ रहा
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सफ़ीने डूब गए कितने दिल के सागर में
ख़ुदा करे तिरी यादों की नाव चलती रहे
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हवा के दोश पे उड़ती हुई ख़बर तो सुनो
हवा की बात बहुत दूर जाने वाली है
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