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अबुधाबी निवासी प्रसिद्ध शायर, चर्चित अदीब व शायर शौकत वास्ती के सुपुत्र

अबुधाबी निवासी प्रसिद्ध शायर, चर्चित अदीब व शायर शौकत वास्ती के सुपुत्र

आसिम वास्ती के शेर

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मिरी ज़बान के मौसम बदलते रहते हैं

मैं आदमी हूँ मिरा ए'तिबार मत करना

ख़ुश्क रुत में इस जगह हम ने बनाया था मकान

ये नहीं मालूम था ये रास्ता पानी का है

लोग कहते हैं कि वो शख़्स है ख़ुशबू जैसा

साथ शायद उसे ले आए हवा देखते हैं

बदल गया है ज़माना बदल गई दुनिया

अब वो मैं हूँ मिरी जाँ अब वो तू तू है

सीखा दुआओं में क़नाअत का सलीक़ा

वो माँग रहा हूँ जो मुक़द्दर में नहीं है

तिरी ज़मीन पे करता रहा हूँ मज़दूरी

है सूखने को पसीना मुआवज़ा है कहाँ

होंटों को फूल आँख को बादा नहीं कहा

तुझको तिरी अदा से ज़ियादा नहीं कहा

तू मिरे पास जब नहीं होता

तुझ से करता हूँ किस क़दर बातें

किसी भी काम में लगता नहीं है दिल मेरा

बड़े दिनों से तबीअत बुझी बुझी सी है

तुम्हारे साथ मिरे मुख़्तलिफ़ मरासिम हैं

मिरी वफ़ा पे कभी इन्हिसार मत करना

इंतिहाई हसीन लगती है

जब वो करती है रूठ कर बातें

ये हम-सफ़र तो सभी अजनबी से लगते हैं

मैं जिस के साथ चला था वो क़ाफ़िला है कहाँ

अब यही सोचते रहते हैं बिछड़ कर तुझ से

शायद ऐसे नहीं होता अगर ऐसा करते

अजीब शोर मचाने लगे हैं सन्नाटे

ये किस तरह की ख़मोशी हर इक सदा में है

मैं इंहिमाक में ये किस मक़ाम तक पहुँचा

तुझे ही भूल गया तुझ को याद करते हुए

नहीं वो शम-ए-मोहब्बत रही तो फिर 'आसिम'

ये किस दुआ से मिरे घर में रौशनी सी है

तुम इस रस्ते में क्यूँ बारूद बोए जा रहे हो

किसी दिन इस तरफ़ से ख़ुद गुज़रना पड़ गया तो

वक़्त बे-वक़्त झलकता है मिरी सूरत से

कौन चेहरा मिरी तश्कील में आया हुआ है

ग़लत-रवी को तिरी मैं ग़लत समझता हूँ

ये बेवफ़ाई भी शामिल मिरी वफ़ा में है

ज़ाविया धूप ने कुछ ऐसा बनाया है कि हम

साए को जिस्म की जुम्बिश से जुदा देखते हैं

कुछ वो भी तबीअत का सुखी ऐसा नहीं है

कुछ हम भी मोहब्बत में क़नाअत नहीं करते

हम अपने बाग़ के फूलों को नोच डालते हैं

जब इख़्तिलाफ़ कोई बाग़बाँ से होता है

तेज़ इतना ही अगर चलना है तन्हा जाओ तुम

बात पूरी भी होगी और घर जाएगा

बना रखा है मंसूबा कई बरसों का तू ने

अगर इक दिन अचानक तुझको मरना पड़ गया तो

कहीं कहीं तो ज़मीं आसमाँ से ऊँची है

ये राज़ मुझ पे खुला सीढ़ियाँ उतरते हुए

है ये उम्मीद मिरे ख़्वाब में आप आएँगे

एक दर आँख का रखता हूँ खुला रात के वक़्त

मुझे ख़बर ही नहीं थी कि इश्क़ का आग़ाज़

अब इब्तिदा से नहीं दरमियाँ से होता है

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