अजीत सिंह हसरत
ग़ज़ल 19
अशआर 20
आख़िरी उम्मीद भी आँखों से छलकाए हुए
कौन सी जानिब चले हैं तेरे ठुकराए हुए
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गुज़रे जिधर से नूर बिखेरे चले गए
वो हम-सफ़र हुए तो अँधेरे चले गए
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बन सँवर कर रहा करो 'हसरत'
उस की पड़ जाए इक नज़र शायद
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हमारे अहद का ये अलमिया है
उजाले तीरगी से डर गए हैं
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हिज्र का दिन क्यूँ चढ़ने पाए
वस्ल की शब तूलानी कर दो
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