मीठे जूते
ये भाई बहनों को अजीब-अजीब तरीक़े से बेवक़ूफ़ बनाते हैं। भाई के हाथों निको बनने वाली बहन की रूदाद।
नन्हे भाई बिल्कुल नन्हे नहीं बल्कि सबसे ज़्यादा क़द-आवर और सिवाए आपा के सबसे बड़े हैं। नन्हे भाई आए दिन नित नए तरीक़ों से हम लोगों को उल्लू बनाया करते थे। एक दिन कहने लगे, “चमड़ा खाओगी?”
हमने कहा, “नहीं, थू! हम तो चमड़ा नहीं खाते।”
“मत खाओ!” ये कह कर चमड़े का एक टुकड़ा मुँह में रख लिया और मज़े-मज़े से खाने लगे।
अब तो हम बड़े चकराए। डरते-डरते ज़रा सा चमड़ा लेकर हमने ज़बान लगाई। अरे वाह, क्या मज़ेदार चमड़ा था, खट्टा-मीठा। हमने पूछा “कहाँ से लाए नन्हे भाई?”
उन्होंने बताया, “हमारा जूता पुराना हो गया था, वही काट डाला।”
झट हमने अपना जूता चखने की कोशिश की। आख़ थू! तौबा, मारे सड़ाँद के नाक उड़ गई।
“अरे बेवक़ूफ़ ये क्या कर रही हो? तुम्हारे जूते का चमड़ा अच्छा नहीं है और ये है बड़ा गंदा। आपा की जो नई गुरगाबी है ना, इसे काटो तो अंदर से मीठा-मीठा चमड़ा निकलेगा।” नन्हे भाई ने हमें राय दी।
और बस उस दिन से हमने गुरगाबी को गुलाब जामुन समझ कर ताड़ना शुरू कर दिया। देखते ही मुँह में पानी भर आता।
ईद का दिन था...
आपा अपनी हसीन और मह-जबीन गुरगाबी पहने, पाँयचे फड़काती, सिवय्याँ बाँट रही थीं। आपा ज़ुहर की नमाज़ पढ़ने जूँ-ही खड़ी हुईं, नन्हे मियाँ ने हमें इशारा किया।
“अब मौक़ा है, आपा नीयत तोड़ नहीं सकेंगी।”
“मगर काटें काहे से?” हमने पूछा...
“आपा की संदूक़ची से सलमा सितारा काटने की क़ैंची निकाल लाओ।”
हमने जूँ-ही गुरगाबी का भूरा मुलाइम चमड़ा काट कर अपने मुँह में रखा, हमारे सर पर झट चप्पलें पड़ीं। पहले तो आपा ने हमारी अच्छी तरह कुंदी की, फिर पूछा “ये क्या कर रही है?”
“खा रहे हैं।” हमने निहायत मिस्कीन सूरत बना कर बताया…
ये कहना था सारा घर हमारे पीछे हाथ धो कर पड़ गया। हमारी तिक्का-बोटी हो रही थी कि अब्बा मियाँ आ गए। मजिस्ट्रेट थे, फ़ौरन मुक़द्दमा मय मुजरिमा और मक़्तूल गुरगाबी के रोती पीटती आपा ने पेश किया। अब्बा मियाँ हैरान रह गए। उधर नन्हे भाई मारे हंसी के क़लाबाज़ियाँ खा रहे थे। अब्बा मियाँ निहायत ग़मगीं आवाज़ में बोले, “सच बताओ, जूता खा रही थी?”
“हाँ।” हमने रोते हुए इक़्बाल-ए-जुर्म किया।
“क्यों?”
“मीठा होता है।”
“जूता मीठा होता है?”
“हाँ।” हम फिर रेंके…
“ये क्या बक रही है बेगम?” उन्होंने फ़िक्रमंद हो कर अम्माँ की तरफ़ देखा।
अम्माँ मुँह बिसूर कर कहने लगीं। “या ख़ुदा एक तो लड़की ज़ात, दूसरे जूते खाने का चसका पड़ गया तो कौन क़बूलेगा।”
हमने लाख समझाने की कोशिश की कि भई चमड़ा सच में बहुत मीठा होता है। नन्हे भाई ने हमें एक दिन खिलाया था, मगर कौन सुनता था।
“झूटी है।” नन्हे भाई साफ़ मुकर गए।
बहुत दिनों तक ये मुअम्मा किसी की समझ में न आया। ख़ुद हमारी अक़्ल गुम थी कि नन्हे भाई के जूते का चमड़ा कैसा था जो इतना लज़ीज़ था।
और फिर एक दिन ख़ाला बी दूसरे शह्र से आईं। बक़चिया खोल कर उन्होंने पत्तों में लिपटा चमड़ा निकाला और सबको बाँटा। सबने मज़े-मज़े से खाया। हम कभी उन्हें देखते, कभी चमड़े के टुकड़े को। तब हमें मा’लूम हुआ कि जिसे हम चमड़ा समझते थे, वो आम का गूदा था। किसी ज़ालिम ने आम के गूदे को सुखा कर और लाल चमड़े की शक्ल की ये ना-हंजार मिठाई बना कर हमें जूते खिलवाए।
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